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यहाँ 'गणिविनिग्रहे' के स्थान पर 'गणविनिग्रहे' पाठ होना चाहिए।
अर्थ-सम्यग्ज्ञानी द्वारा गृहीत मिथ्या श्रुत भी सम्यक्श्रुत हो जाता है और मिथ्या दृष्टि द्वारा गृहीत सम्यक्श्रुत भी मिथ्याश्रुत हो जाता है। जैसे प्रदेशी राजा के मंत्री चित्रसारथि ने माया से प्रदेशी राजा को केशी गणधर का शिष्य बनाया पर वह माया सम्यक् थी। गुरु अपने गण-समुदाय का अनुशासन करने के लिए कोप करते हैं पर वह भी सम्यक् होता है। ज्ञानी दूसरों को नहीं नमता है पर उसका मान भी सम्यक् होता है। वैसे ही मुनि भी पात्रों का संग्रह करते हैं। पर वह सम्यक् प्रयोजन के लिए है अतः सम्यक है।
विषमप्यमृतं ज्ञानाद-ज्ञानादमृतं विषम् । इत्येवं साधनैः साध्यो ज्ञानधर्मोऽस्ति निश्चयात् ॥ २१ ॥
अन्वय-ज्ञानात् विषं अपि अमृतं निश्चयात् अज्ञानात् अमृतं अपि विषं इति एवं साधनैः ज्ञानधर्मो साध्योऽस्ति ।। २१ ।।
अर्थ-ज्ञानोपयोग से विष भी अमृतमय निश्चित रूप से बन जाता है एवं अज्ञान से अमृत भी विषमय बन जाता है अतः इसी प्रकार के सुसाधनों से ज्ञानधर्म की साधना करनी चाहिए ।
॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥
- अहंद्गीता
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