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अध्याय चौथा
धर्म बीज
तीसरे अध्याय में पूछे गौतम स्वामी के प्रश्नों के उत्तर के क्रम में श्री वीर भगवान् ने कहा-ज्ञानियो की तत्त्वविद्या पूजा अध्ययन एवं दानादि बाह्य साधनों से विकसित होती है क्योंकि ये धर्म के साधन हैं। गुरु जंगम तीर्थ है। उनकी सेवा एवं स्थावर तीर्थों की उपासना से मन में निर्मलता आती है, शास्त्रों का अध्ययन करने से स्वाध्याय होता है एवं उससे त्याज्य तथा ग्राह्य धर्मों का ज्ञान होता है। यह विवेक ही कैवल्य संपदा है। इस मोक्ष साधना में दान शील तप एवं भाव का बड़ा महत्त्व है। दान से दानावरणीय कर्म का नाश होता है जिससे संसार में वैभव तथा परलोक में अनन्त ज्ञान की प्राप्ति होती है। शील-चारित्र से इस संसार में रूप और बल तथ परलोक में अनन्त वीर्यता प्राप्त होती है। तप से शरीर नीरोग रहता है एवं शरीरत्याग पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। भाव तो संसार में सर्वोच्च ही है वह विवेक के रूप में संसार में प्रतिष्ठित है इसीसे आस्रव संवर एवं संवर आस्रव हो जाते हैं।
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अध्याय चतुर्थः
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