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ब्रह्मणो विषयादेवं यत्सत्तद् ब्रह्म निश्चितम् । जीवोऽपि ब्रह्म शुद्धस्य तस्य ब्रह्मपदं शिवम् ॥ १०॥
अन्वय-एवं ब्रह्मणः विषयात् यत् सत् तत् निश्चित ब्रह्म। जीव अपि ब्रह्म। शुद्धस्य तस्य शिवम् ब्रह्मपदं (अपि) (निश्चितम् ) ॥१०॥
अर्थ-इस प्रकार ब्रह्म का विषय होने के कारण संसार में जो कुछ भी सत् (ध्रौव्यात्मक ) है वह निश्चित रूप से ब्रह्म है। जीव भी सत् है अतः वह भी ब्रह्म है। जीवात्मा शुद्ध बुद्ध है अतः उसका मोक्ष रूप ब्रह्म पद भी निश्चित है।
जीवन्मुक्तोऽपि सर्वज्ञः प्रास्तदोषः सुसंवृतः । ब्रह्मचर्यपरः साक्षात्परब्रह्मतयोच्यते ॥ ११ ॥
अन्वय-प्रास्तदोषः सुसंवृतः ब्रह्मचर्यपरः जीवन्मुक्तः सर्वशः अपि परब्रह्मतया उच्यते ॥ ११ ॥
___ अर्थ-दोषों से रहित अर्थात् घाती कर्मावरण से रहित संवर भाव में स्थित ब्रह्मचर्यपर, जीवन्मुक्त सर्वज्ञ भी परब्रह्म रूप में कहे जाते हैं।
विवेचन-'प्रास्तदोषः' का अर्थ है अस्त हो गए है दोष जिनके अर्थात् निर्जराभाव में स्थित ज्ञान दर्शन चारित्र युक्त जीवन्मुक्त सर्वज्ञ भी 'परब्रह्म' रूप में जाने जाते हैं। वे सयोगी केवली या जीवन्मुक्त केवली होते हैं उनके घाती कर्मो का तो नाश हुआ होता है पर ४ अघाती कर्म भोग्य होते हैं।
लोकालोकोप्यनन्तत्वा-दहणो ब्रह्मनामभृत् । तद्ज्ञानमपि सद्ब्रह्म ह्यग्निज्ञमनुजेऽग्निवत् ॥ १२ ॥
अन्वय-अनन्तत्वात् लोकालोकः अपि बृहणः ब्रह्मनामभृत् । तद्ज्ञानं अपि सद्ब्रह्म हि अग्निशमनुजे अग्निवत् ॥ १२ ॥
श्री अर्हद्गीता
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