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आध्यात्मिक तारतम्यमिच्छाविजयतः क्रमात् । गुणस्थानानि तेनैव प्रोचुरुचावचान्यपि ॥ १६ ।।
अन्वय-इच्छाविजयतः क्रमात् आध्यात्मिकं तारतम्यं (प्राप्यते) तेन एव उच्चावचानि गुणस्थानानि अपि प्रोचुः ॥१६॥
अर्थ-इच्छा पर विजय प्राप्त करने से ही क्रमशः आध्यात्मिक तरतमता प्राप्त की जाती है उसी से ही उँचे एवं नीचे के गुणस्थानक भी कहे गए हैं।
विवेचन-इच्छा की सघनता से नीचे के गुणस्थान एवं इच्छा की विरलता से क्रमशः ऊँचे ऊँचे गुणस्थानकों में आत्मा का प्रवेश होता है।
अमुक्तोऽपि क्रमान्मुक्तो निश्चयात्स्यादनिच्छया। अज्ञानं मोहमेवाहुस्तस्मादिच्छा ततो भवः ॥१७॥
अन्वय-अनिच्छया अमुक्तः अपि क्रमात् मुक्तः निश्चयात् स्यात्। अशानं मोहं एव आहुः तस्मात् इच्छा ततः भवः ॥ १७ ॥
___ अर्थ-निष्काम भाव से अर्थात् कामना रहित व्यक्ति बद्ध होने पर भी क्रमशः निश्चय रूप से मुक्त हो जाता है। अज्ञान ही मोह है एवं मोह से इच्छा तथा उसी से फिर संसार भ्रमण होता है।
इच्छयानिच्छयापि स्यात् क्रियैकापि स्वरूपतः । J मुख्यैव कर्मबंधाय निर्जरायै परा पुनः ॥ १८ ॥
अन्वय-इच्छया अनिच्छया अपि एका क्रिया स्यात् स्वरूपतः मुख्या कर्मबन्धाय एव पुनः परा निर्जरायै (स्यात् ) ॥ १८ ॥
___ अर्थ-यदि एक ही प्रवृत्ति इच्छा या अनिच्छा से हो तो पहली इच्छा से हुई प्रवृत्ति कर्म-बन्धन का कारण बनती है एवं दूसरी अनिच्छा से हुई प्रवृत्ति निर्जरा का कारण बनती है।
अर्हद्गीता
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