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अन्वय-ज्ञानिनः औदासिन्यात् निर्जरास्पदम् प्रवृत्तिः स्यात् । तत्त्वज्ञानात् नैयायिकाः जिनाः अतः मुक्तिं जगुः ॥ २१ ॥
अर्थ-ज्ञानियों की रागरहित अनासक्त अवस्था से कर्मनिर्जरा में प्रवृत्ति होती है इसी तत्त्वज्ञान ( आत्मज्ञान ) से फिर मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा जिनेश्वर भगवन्तों ने कहा है।
विवेचन-वैराग्य का नाम ही औदासिन्य है। इसे ही योग में उन्मनी अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में साधक बाह्य संसार से विमुख होकर आत्मोन्मुख होता है।
॥ इति अर्हद्गीतायां प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
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अर्हद्गीता
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