________________
जानाति सर्वं ज्ञानेन सम्यग्दृष्टिस्ततो भवेत् । विरमेत्पातकाज्जीवो मोहोदयविधायिनः ॥ १६ ॥
अन्वय - ज्ञानेन सर्वं जानाति ततः सम्यग्दृष्टिः भवेत् । मोहोदयविधायिनः पातकात् जीवः विरमेत् ॥ १६ ॥
अर्थ-संसार में यह आत्मा ज्ञान से ही सर्वज्ञ है ( सब कुछ जानती है) इसी से वह सम्यग्दृष्टि होती है, इसी ज्ञान से मोहोदय के कारणभूत पाप से आत्मा विराम पाती है ।
तत्पूर्वं ज्ञानमादेयं हेयोपादेयगोचरम् । चक्षुर्जन्मनि बालोऽपि पूर्वमुन्मीलयेद्यतः ॥ १७ ॥
अन्वय- हेयोपादेयगोचरम् तत् ज्ञानं पूर्व आदेयं, यतः बालोऽपि जन्मनि पूर्व चक्षुः उन्मीलयेत् ॥ १७ ॥
C
अर्थ - अतः संसार में सभी वस्तुओं के पहले हेय उपादेय विषयक ज्ञान कोही ग्रहण करना चाहिए, इसी से संसार में हेय और उपादेय रूपा विवेकी दृष्टि उत्पन्न होती है। क्योंकि संसार में भी बालक जन्म प्राप्त करते ही सर्व प्रथम नेत्र ही खोलता है अतः यह बात लोक व्यवहार से भी सिद्ध है ।
विद्याभ्यासस्ततः पूर्व जनैर्वालस्य कार्यते ।
कार्ये कार्यः पुरो दीपो रात्रौ ज्ञानं पुरस्तथा ॥ १८ ॥
अन्वय- ततः पूर्व जनैः बालस्य विद्याभ्यासः कार्यते । रात्रौ कार्ये पुरः दीपः कार्यः तथा ज्ञानं पुरः ॥ १८ ॥
।
अर्थ - अतः सर्व प्रथम लोग जगत् में बालकों को विद्याभ्यास करवाते हैं ताकि उनके अन्तर में ज्ञानभानु का उदय हो जाय किसी भी कार्य के पहले दीपक किया जाता है । वैसे ही प्रत्येक कार्य के पूर्व में उनका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ।
पठनान्नोच्यते ज्ञानी यावत्तत्त्वं न विन्दति । रामनाम शुको जल्पन् न तैरश्च्यः तदर्थवित् ॥ १९ ॥
दूसरा अध्याय
Jain Education International
रात्रि में
संसार के
For Private & Personal Use Only
३१
www.jainelibrary.org