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अर्थ-सन्मार्ग कुमार्ग का विवेचन करने के कारण प्राणियों के लिए ज्ञान स्वतः नेत्र रूप में प्रतिष्ठित है। यह ज्ञान समस्त विश्व को प्रकाशित करने के कारण हजारों सूर्य के उदय की समता करता है।
ध्रौव्यभावनया द्रव्ये ध्रुवनिष्ठं ध्रुवं स्वतः । निर्मलं केवलं ज्ञानं दत्ते शिवं ध्रुवं फलम् ॥ १३ ॥
अन्वय-द्रव्ये ध्रौव्यभावनया ध्रुवनिष्ठं स्वतः ध्रुवं निर्मलं केवलं ज्ञानं ध्रुवं शिवं फलं दत्ते ॥ १३॥
अर्थ-द्रव्य में ध्रौव्य-निश्चयात्मक भावना से सत्य समाया हुआ है क्योंकि स्वतः सत् निर्मल केवल ज्ञान ध्रुव-निश्चय ही मोक्ष फल को प्रदान करता है।
यथाजनादिना चक्षु नैर्मल्यं लभतेऽजसा। लोकभावनया ज्ञान तथा भवति शाश्वतम् ॥ १४ ॥
अन्वय-यथा अअनादिना अञ्जसा चक्षुः नैर्मल्यं लभते तथा लोकभावनया ज्ञानं शाश्वतं भवति ॥ १४॥
अर्थ-जिस प्रकार काजल की कालिमा से आँखों को निर्मल किय जाता है वैसे ही लोक भावना से ज्ञान भी शाश्वत होता है ।
विद्यमाने यथा भानौ न ग्रहे रुचिरा रूचिः । सम्यग्ज्ञानोदये तद्वत्परिग्रहरुचिः क्वचित् ॥ १५ ॥
अन्वय-यथा भानो विद्यमाने ग्रहे रुचिरा रुचिः न तद्वत् सम्यग् ज्ञानोदये परिग्रहरुचिः न क्वचित् ॥ १५॥
अर्थ-जिस प्रकार सूर्य के प्रकाशमान होने पर ग्रह नक्षत्रों (तारामण्डल ) से प्रकाश की आशा नहीं की जाती है वैसे ही सम्यग्ज्ञान के उदित होने पर परिग्रह में रूचि नहीं होती है।
अहंद्गीत
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