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सुधेयमिति चिन्तायां गोचरः सलिलं सुधा। . राजवार विषयोऽप्यर्थो राजवागीयमुच्यते ॥ ८॥
अन्वय-इयं सुधा इति चिन्तायां सलिल सुधा गोचरः। राजवाग विषयः अर्थः अपि राजवागीयं उच्यते ॥ ८ ॥ . अर्थ-यह अभृत है ऐसा चिन्तन करने पर जल भी अमृतमय बन जाता है क्योंकि राजा की वाणी (राजाज्ञा ) एवं उसका सम्पादनीय अर्थ भी राजाज्ञा ही कहा जाता है।
विवेचन-“भावना फलतीह सर्वत्र” अर्थात् सर्वत्र भावना ही फलवती होती है जैसी भावना होगी वैसा ही संसार भी परिणमित होगा। अच्छी भावना से अच्छा संसार तथा निराशात्मिका भावना से संसार निराशामय होगा। अतः भावना से तो जल भी अमृतमय हो जाता है। कहा है
पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं । किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ॥
(कल्याणमंदिर स्तोत्र) राजा आदेश भेजता है तो वह आदेशमय पत्र भी राजाज्ञा कहा जाता है । वस्तु यत्कर्मविषयस्तत्कर्मार्चादिकं स्फुटम् । व्यापारविषये भावे व्यापारोऽयमिति स्थितिः ॥९॥
अन्वय--यत् वस्तु कर्म विषयः तत् स्फुटं कर्मार्चादिकम् । (हि) व्यापार विषये भावे अयं व्यापारः इति स्थितिः ॥९॥
अर्थ-विषय और विषयी दोनों में अभेद है इसी बात की पुष्टि आगे करते हैं कि जो वस्तु कर्म का विषय है वह स्पष्ट रूप से कर्म की ही अर्चना-पूजा है अर्थात् कर्म और कर्म का विषय दोनों एक ही हैं। जैसे हम किसी प्रवृत्ति के विषय में सोचते हैं तो वह भी प्रवृत्ति ही कहलाती है।
विवेचन--स्पष्ट है जब किसी व्यक्ति ने परदेश जाने के लिए प्रयाण ही किया है पर पूछने पर लोग यही कहेंगे कि बम्बई गया है ।
अध्याय प्रथमः
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