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अन्वय- श्रीवीरेण भगवता स्वयं गौतमाय विबोधिता, इन्द्रभूतिमुनिना सा सूत्रेण ग्रथिता द्वादशांग्यां पराम् अद्वैतामृतवर्षिणीं षट्त्रिंशदध्यायिनीं भवद्वेषिणीं त्वां मातः भगवद्गीते मनसा दधामि ॥
अर्थ - श्रमण भगवान महावीर द्वारा खयं उपदेशित, इन्द्रभूति गौतमस्वामी द्वारा सूत्र रूप में लिखी हुई, द्वादश अंगों से पूर्ण, आत्मा परमात्मा के अद्वैत- अभेद की अमृत वर्षा करने वाली, छत्तीस अध्यायोंवाली संसार के आवागमन के चक्र का समूलोच्छेदन करने वाली हे माता अर्हद्रवाणी तुम्हें मैं मन से धारण करता हूँ ।
॥ इति परसमय मार्ग पद्धत्या शास्त्रप्रज्ञाश्रुतदेवतावतारः ॥
ॐ ह्रीं श्रीँ अहं नमः
अर्हन्तं श्रमणं वीरं भगवन्तं नमन जगौ । तस्मिन् काले
समये 'चंपायां' गौतमो गणी ॥ १ ॥ अन्वय-अथ तस्मिन् काले समये चंपायां गौतमो गणी श्रमणं भगवन्तं वीरं अर्हन्तं नमन् जगौ ॥ १ ॥
अर्थ - उस काल में एक अवसर पर चम्पा नगरी में गौतम गणधर ने अर्हत स्वरूप श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार करते हुए पूछा । श्री गौतम उवाच
देवाधिदेव भगवन् लोकालोकप्रकाशक ! |
योगिनोऽपि मनो वश्यं जायते तद्वदाधुना ॥ २ ॥
अन्वय- हे देवाधिदेव ! लोकालोकप्रकाशक भगवन् ! योगिनः अपि मनः वश्यं जायते तत् अधुना वद ॥ २ ॥
अर्थ - हे देवाधिदेव ! लोकालोक प्रकाशक भगवन् । आज मुझे वह विधि बताइए जिससे योगी लोग का मन भी वश होता हैं ।
अध्याय प्रथमः
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