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विवेचन - देवों का उत्कृष्ट आयुष्य ३३ सागरोपमसंख्या में माना गया है। उनका यह नियम है कि जितने सागरोपम का उनका आयुष्य होता है उतने पखवाड़े में एक श्वासोच्छ्वास लेते हैं अर्थात् उनका कुम्भक दीर्घ होता है जो प्राणायाम का ही रूप है ।
सूक्ष्माः स्युः प्राणसंचारा-स्तथै केन्द्रियदेहीनाम् । बाह्यस्तु तेषां पवनाभ्यास एव न केवलः ॥ ७ ॥
अन्वय-तथा एकेन्द्रियदेहीनां (अपि) प्राणसंचाराः सूक्ष्माः स्यु: (अतः ) पवनाभ्यासः तु बाह्य एव तेषां (मुक्त्यर्थ ) पवनाभ्यास एव न केवलः ॥ ७ ॥
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अर्थ - यदि प्राणायाम से प्राणों को सूक्ष्मत्व प्रदान कर दिया जाता हो तो वैसा सूक्ष्मत्व एकेन्द्रिय देहधारियों में है । उनमें प्राणों का संचरण सूक्ष्म है पर वे मुक्त नहीं हैं । अतः पवनाभ्यास तो केवल बाह्य वस्तु है अतः जीवों की मुक्ति के लिए केवल पवनाभ्यास ही सब कुछ नहीं है । विवेचन - पवनाभ्यास के साथ शुद्ध ज्ञानोपयोग से ही मुक्ति की आकांक्षा की जा सकती है ।
तथापि न कथा मुक्तेरेषां पुद्गलसंग्रहात् । भयाहारादिसंज्ञाभिः स्थावराणां भवभ्रमः ॥ ८ ॥
अन्वय - तथापि पुद्गलसंग्रहात् एषां स्थावराणां भयाहारादिसंज्ञाभिः भवभ्रमः ( विद्यते ) न कथा (च) मुक्तेः ॥ ९ ॥
अर्थ - तथापि कर्म संग्रह के कारण इन स्थावर एकेन्द्रिय जीवों को भी भय, आहार आदि संज्ञाओं के कारण संसार परिभ्रमण करना पड़ता हैं एवं इनकी मुक्ति की तो बात भी नहीं की जा सकती है ।
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विवेचन - जब तक पुद्गल का संग्रह होगा तब तक किसी भी प्राणी की मुक्ति नहीं हो सकती है । स्थावर जीव तो ऐसे हैं कि जिनमें सुख प्राप्त करने की गति चेष्टा भी दिखाई नहीं पड़ती है । उनमें मन भी नहीं होता है ।
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अर्हद्गीता
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