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: मेघगम्भीरघोषत्वाद्यदीयाऽव्यक्तवर्णता ।
गीतारंभ इवान्वर्थ-दर्शने स्पष्टवर्णता ॥३॥
अन्वय-यदीया मेघगम्भीर घोषत्वात् अव्यक्त वर्णता गीतारम्भ इव अनु अर्थ दर्शने स्पष्ट वर्णता॥३॥
अर्थ-इसका अनाहत नाद मेघ गम्भीर घोष के समान है अतः वहाँ इसकी अध्यक्त वर्णता है किन्तु गीतारम्भ की भाँति यह अव्यक्त वर्णवाली वाणी पश्चात्गामिनी है एवं जब इसकी सार्थकता पर विचार किया जाता है तो इसकी स्पष्ट वर्णता दृष्टिगोचर होती है।
विवेचन-यहाँ मेघगम्भीर घोष की बात कह कर अरिहन्त वाणी की ओर संकेत किया है। जिनेश्वर भगवन्त " मेघगम्भीरया गिरा" अर्थात् जलद गम्भीर घोष के साथ ही बोलते हैं। अत: यह अर्हद्वाणी अनाहत नाद स्वरूपा है। योगियों का कथन है कि अनाहत नाद की अनुगूंज मेघों की एवं नगाड़ों की ध्वनि। के समान होती है। इस गम्भीर घोष की वर्णमातृका अव्यक्त - अस्पष्ट होती है जिस प्रकार गीतारम्भ में वादक केवल स्वर संधान करता है एवं तत्पश्चात् ही वह किसी गीत का तदनुसार संधान करता है वैसे ही यह सरस्वती भी जिनेश्वर भगवन्तों के अनाहत नाद रूप मेघ गम्भीर घोष की अनुवर्तिनी है। स्वर संधान के पश्चात् गीत का भावार्थ, सरलार्थ एवं तात्पर्यार्थ इंगित किया जाता है वैसे ही जब उस अर्हवाणी रूप सरस्वती की वर्णमातृका का अर्थदर्शन किया जाता है तो वह लौकिकमातृका में भी प्रकट होती है। अव्यक्तवर्णता एवं व्यक्तवर्णता से यहाँ 'परब्रह्म' एवं 'शब्द ब्रह्म' का ग्रहण होना चाहिए। इसे ही योगशास्त्र में 'परामातका' एवं 'वर्णमातृका' कहा जाता है।
साध्यक्षा श्रुतदेवीवाऽनुयोगाङ्गचतुर्भुजा । आत्मानुशासनाद् ब्राह्मी संविदे हंसगामिनी ॥ ४ ॥
अन्वय-अनुयोगांगचतुर्भुजा सा श्रुतदेवी इव अध्यक्षा (अस्ति) आत्मानुशासनात् ब्राह्मी संविदे च हंसगामिनी (अस्ति)॥४॥
श्री अर्हद्गीता
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