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दूसरा अध्याय
अपभ्रंश भाषा का विकास
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आर्यभाषा की भिन्न-भिन्न परम्पराओं में भाषा का प्राचीनतम रूप हमें वैदिक भाषा में मिलता है । वैदिक वाङ्मय में ऋग्वेद ही सब से प्राचीन ग्रंथ माना गया है । इसमें भी कुछ ऋचायें ऐसी हैं जिनकी भाषा बहुत प्रौढ़ एवं प्रांजल है और कुछ ऐसी हैं जिनकी भाषा अपेक्षाकृत अधिक सरल, अधिक सुबोध और चलती हुई है। जिस वैदिक भाषा में वेद उपलब्ध होते हैं वह उस समय के शिक्षित और शिष्ट लोगों की भाषा थी । उस काल में भी इस साहित्यिक भाषा के अतिरिक्त एक या अनेक विभाषाओं और बोलियों की कल्पना की गई है।' वैदिक भाषा में एक ही शब्द के अनेक रूपों (जैसे गत्वा, गत्वी, गत्वाय ) का प्रयोग भी इसी ओर संकेत करता है ।
सर जार्ज ग्रियर्सन ने वैदिक काल एवं उससे पूर्व की सभी बोलचाल की भाषाओं— बोलियों को प्रथम प्राकृत ( Primary Prakrits ) 2 का नाम दिया है । इन प्रथम प्राकृत श्रेणी की विभाषाओं का काल २००० ई० पू० से ६०० ई० पू० तक माना गया है । इस काल को प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल कहा जा सकता है । स्वर एवं व्यंजनादि के उच्चारण में तथा विभक्तियों के प्रयोग में इन प्रथम प्राकृत की विभाषाओं में समानता थी । ये विभाषाएँ संयोगात्मक और विभक्तिबहुल कही जाती हैं । वैदिककालीन विभाषाओं — बोलियों- - का धीरे-धीरे विकास होने लगा। आर्यों की भाषा भारत के उत्तर-पश्चिम प्रदेश से धीरे-धीरे पूर्व की ओर फैली । गौतम बुद्ध की उत्पत्ति के समय तक यह भाषा विदेह ( उत्तरी बिहार ) और मगध ( दक्षिणी बिहार ) तक फैल गई थी । इस आर्यभाषा का रूप उत्तरी भारत एवं वजीरीस्तान तथा पेशावर प्रदेश, मध्यदेश और पूर्वीय भारत में बुद्ध के समय तक पर्याप्त परिवर्तित हो गया था । इस परिवर्तन के कारण भारत के इन प्रदेशों की भाषा को क्रमशः उदीच्या, मध्यदेशीया और प्राच्या कहा गया ।
१. मैकडौनल— हिस्ट्री आफ संस्कृत लिट्रेचर, १९२८ ई०, पृ० २४; डा० सुनीति कुमार चटर्जी — इंडो प्रार्यन एंड हिन्दी, १६४२ ई०, पृ० ४७ ॥
२. ग्रियर्सन — लिंग्विस्टिक सर्वे श्राफ इंडिया, जिल्द १, भाग १, सन् १९२७, पृ० १२१ ।