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अनासक्त कर्मयोगी
मंत्र था।
निर्माण का श्रेय बाबू छोटेलाल जी को है और इसके मूल सन् ४४ में पहले राजगृही में वीर शासन महोत्सव में है श्री जगलकिशोर जी मुख्तार के प्रति प्रारम्भ से हुप्रा । पीछे कलकत्ता मे तो बहुत ही धूमधाम से हुमा। ही उनकी प्रादर भावना। दोनो में भक्त और भगवान इसका श्रेय बाबू छोटेलाल जी को है। उस समय उनकी जैसा सम्बन्ध था एक बार मैं उनसे मुख्तार साहब की कार्यतत्परता देखते बनती थी। गला बैठ गया था, कठ बगई करने लगा तो तुरन्त बोले पं० जी, उनका दिल से आवाज नही निकलती थी, शरीर अस्वस्थ था, किन्तु रखने वाला भी तो कोई एक होना चाहिए। तो वीरफिरकी की तरह घूमते फिरते थे।
सेवा मन्दिर बा. छोटेलाल जी की मुख्तार साहब के जब यह विचार हमा कि स्यावाद महाविद्यालय की प्रति जो भक्ति थी उसका एक प्रतीक है । खेद है कि वह स्वर्णजयन्ती पूज्यवर्णी जी के सान्निध्य में ईसरी मे मनाई' भक्ति प्रभवित में परिणत हो गई। बा० छोटेलाल जी जावे तो सबसे प्रथम इसका समर्थन करने वाले बाबू तो चले गये किन्तु मुख्तार सा० अभी वर्तमान हैं। और छोटेलाल जी ही थे। उस मायोजन में जो कुछ सफलता इसलिये उन पर एक विशेष उत्तरदायित्व प्रा गया है। मिली उसका पूर्ण श्रेय उन्हे ही है। उन्होने मुझे दश- उसे निवहना उनका कर्तव्य है। लाक्षिणी में कलकत्ता आमत्रित कराया और मेरे माथ जाकर बीस हजार का चिट्ठा लिखाया। उन्हे स्वर्ण
वीरसेवामन्दिर केबल प्रायका साधन नहीं होना जयन्ती महोत्सव को स्वागतकारिणी ममिति का मत्री चाहिए । उस प्राय के व्यय का भी प्रबन्ध होना चाहिये। बनाया गया था। शीतऋतु, सम्मेदशिखर का जलवायु, यदि प्राय जमा होती रही तो वीर सेवा मन्दिर साहित्यकों यात्रियों की भीड। और बाबू छोटेलाल जी सुबह से की दृष्टि का केन्द्र न रहकर धनाथियों की दृष्टि का उठकर दिन भर खडे खडे डेरे खडे कराते थे।
केन्द्र बन जायेगा । प्रत उसे ऐसे हाथो में सौंपना चाहिए किमसे कब किम तरह से काम लेना चाहिए, इम जो धन में अधिक साहित्य के अनुगगी हैं | बा. छोटेलाल कला मे वह विशेष निपुण थे। स्वभाव के तीखे भी थे जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है उस उद्देश्य की पति जिम और मधुर भी। विद्वानो के प्रति उनकी बडी प्रास्था उद्देश्य से वीरमवामन्दिर का भवन देहली में बनवाया थी। उन्हें देखकर बडे प्रसन्न होते थे और उनकी मेवा गया था। प्रस्तु, में लग जाते थे। उनके श्रद्धास्पद व्यक्ति और सस्थाए चुनी हुई थी। विद्वानों और त्यागियो में वह पूज्यवर्णी जी
वा. छोटेलाल जा विद्या और माहित्य के अनुरागी के अनन्या उनके प्रति समोरेलाल थे। उन्होंने अपनी माता का धन तो वीरसेवामन्दिर जी ने वर्णी जी का सिर डाना नही छोडा। मदा उनके की जमीन में लगा दिया और अपने दो भाइयो के धन से पास बैठे हुए उनकी पीछे से मक्खिया उडाया करते थे। चालीम हजार रुपया स्याद्वाद महाविद्यालय को दिलवाया। और इस बात का ध्यान रखते थे कि वर्णी जी को किसी और अपने पास जो कुछ था वह सब भी ट्रस्ट द्वारा के द्वारा जरा भी असुविधा न हो।
साहित्यिक कार्यों को प्रदान कर गये । श्रेष्ठियो मे साहू शान्तिप्रसाद जी के प्रति उनका
धनी मारवाडी परिवार में जन्म लेकर विद्या और बडा अनुराग था और सदा उनको उदारता की चर्चा
माहित्य के प्रति ऐमा अनुराग बहुत विग्ल देखा जाता करते रहते थे।
है। वह व्यक्ति था जिसने कभी नाम नही चाहा, प्रशसा सस्थानों में वीरसेवामन्दिर देहली, स्यावाद महा
नही चाही, केवल काम करना चाहा। गीता के शब्दो में विद्यालय काशी और जैन बाला विधाय मारा उनके वह अनासक्त कर्मयोगी थे जिन्होने फल की इच्छा नहीं स्नेह भाजन थे। दिहली मे वीरसेवामन्दिर के भवन की और जीवन भर कर्तव्य कर्म करते रहे।*