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गहना कर्मणो गतिः
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. ठीक उसी समय जबकि वह शनैः-शनैः आगे-आगे बढ़ रहा था, महाराज श्रेणिक भी ससैन्य उधर से गुजरे । फिर क्या था, श्रेणिक के घोड़े की एक टॉप पड़ते ही मेंढक घायल होकर मरणासन्न हो गया । किन्तु उस समय भी उसकी भावना दृढ़ श्रद्धा, आस्था एवं समता से परिपूर्ण थी। उसने विचार किया-"भगवान के दर्शन करने जा रहा था पर कर्मों के चक्र में पड़ने से पहुँच नहीं सका अतः यहीं से उन्हें वन्दन-नमस्कार करता हूँ।" इस प्रकार पूर्ण सम-भाव रखने के कारण अगले ही क्षण वह मृत्यु को प्राप्त होकर सीधा स्वर्गलोक में पहुंच गया। __महावीराष्टक में चौथा श्लोक इसी विषय पर है । वह इस प्रकार है--
यद भावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह, क्षणादासीत् स्वर्गी गुणगण-समृद्धः सुखनिधिः । लभन्ते सद्भक्ताः शिवसुख-समाजं किमु तदा ?
महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ इस श्लोक के द्वारा यही प्रार्थना की गई है कि- "हे प्रभो ! प्रमुदित हृदय से तो आपकी शरण में आने पर जब दर्दुर मेंढक जैसे तिर्यंच भी क्षण भर में ही गुणों के समूह से समृद्ध स्वर्ग में पहुंच सकते हैं तो फिर हम मनुष्य क्यों नहीं आपकी आराधना करने पर शुभ गति की प्राप्ति कर सकते हैं ?" ।
पर बन्धुओ, ऐसा होगा कब ? तभी, जबकि हमारी भावनाएँ पूर्णतया विशुद्ध होंगीं। हमारे हृदयों से विषय-विकारों का निष्कासन होगा और अपने पापों के लिए सच्चा पश्चात्ताप होगा । संसार को बढ़ाने और घटाने का मुख्य कारण मन की भावनाएँ ही होती हैं । अगर भावनाएँ कलुषित अथवा राग-द्वेष से परिपूर्ण रहीं तो व्यक्ति चाहे श्रावक के व्रत धारण करले अथवा साधु के बाने को अपना ले, इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है । अन्त में तो उसे पश्चात्ताप करना ही पड़ेगा कि मैंने सम्पूर्ण क्रियाएँ मात्र दिखावे के लिए की थीं।
किसी गुजराती कवि ने ऐसे. ही पश्चात्ताप को पद्यों में अंकित करते हुए लिखा है। ठगवा विभु ! आ विश्व ने,
वैराग्य ना रंगो धर्या। ने धर्म नो उपदेश रंजन,
लोक ने करवा कर्या ।
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