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गहना कर्मणो गतिः
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भगवान के उपदेशों का अस्तित्व भी उसके हृदय से मिट गया था। अतः जैसा कि उसने अपने जीवन का पिछला समय व्यतीत किया था-दानशाला व बावड़ी आदि बनवाने में, उन्हीं का उस समय उसे स्मरण रहा और ध्यान आया"अरे ! मैंने दानशाला बनवाई, बावड़ी खुदवाई, पर उन्हें आँखों से देख भी नहीं सका।" बस, इन्हीं भावनाओं के कारण वह अपनी ही खुदवाई बावड़ी में मेंढक बन गया।
ऐसी होती है कर्मों की विचित्रता। नन्दन मणिहार ने अपनी भावनाओं के अनुसार कर्मों का बन्ध किया और उनका फल पाया। प्रथम तो उसने यह विचार किया कि "छोटे संतों का उपदेश क्या सुनना ?" जिससे ऐसे बन्ध किये कि शरीर रोगों से भर गया। उसके पश्चात् अन्तिम समय तक अपनी खुदवाई हुई बावड़ी में आसक्ति रहने के कारण उसमें मेंढक बना। कौन बड़ा और कौन छोटा ?
बन्धुओ, यहाँ ध्यान में रखने की बात यह है कि संतों को बड़ा और छोटा समझना व्यक्ति की बड़ी भारी भूल है। आखिर आप बड़े और छोटे की पहचान किस प्रकार करते हैं ? यह संभव है कि ज्ञानावरणीय कर्मों का अधिक क्षय होने के कारण कोई संत अधिक विद्वत्ता हासिल कर लेते हैं और वे आपको अधिक उपदेश दे सकते हैं और जिन्हें आप छोटा मानते हैं वे कम बोल पाते हैं । किन्तु वे भी तो जो कुछ कहते हैं, वीतराग के वचनों में से ही आपको सुनाते हैं। फिर अधिक उपदेश देने वाला बड़ा और कम उपदेश देने वाला छोटा क्योंकर हुआ ? क्या अधिक उपदेश सुनकर उन सभी को आप अमल में लाते हैं और कम सुना हुआ ग्रहण नहीं कर पाते ? ___ मेरे भाइयो ! अमल में लाने वाला जिज्ञासु श्रोता तो दो वाक्य सुनकर भी अपने जीवन में आमूल परिवर्तन कर सकता है और आपको तो बड़े-बड़े संतों के उपदेश सुनते हुए बरसों बीत गये पर आप वहीं हैं जहाँ थे। फिर संतों को छोटा-बड़ा कहने का आपको क्या अधिकार है ? और उससे लाभ भी क्या है ?
इसके अलावा मैं समझता है कि जिन संतों के स्थान पर अधिक दर्शनार्थी आया करते हैं और जिनके चातुर्मासों में अधिक धन व्यय होता है, उन्हें भी आप बड़ा मान लेते हैं । क्या बड़प्पन का यही नाप है ? नहीं, साधु का बड़प्पन अपने महाव्रतों का भली-भाँति पालन करने में और साधनामय जीवन बिताने में है । इस दृष्टि से गुदड़ी में लाल के समान आपको ऐसे-ऐसे संत मिल सकते हैं जो भले ही उपदेश नहीं दे सकते और जिनके यहाँ दर्शनार्थियों की धकापेल भी नहीं होती पर वे यथार्थ रूप में बड़े और महान् संत कहलाने के अधिकारी
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