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आनन्द प्रवचन : सातवां भाग
भी जीव का पीछा नहीं छोड़ते और वह उनके अनुसार नाना योनियों में घोर दुःख पाता रहता है।
_ 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के तीसरे अध्याय में कर्मों की विचित्रता बताते हुए कहा गया है
एगया खत्तिओ होइ, तओ चंडाल बुक्कसो ।
तओ कीड पयंगो य, तओ कुंथु पिवीलिया ॥ अर्थात कर्मों के कारण ही जीव कभी क्षत्रिय, कभी चाण्डाल, कभी वर्णशंकर तथा कभी-कभी कीट, पतंगा, कुथुआ और चींटी के रूप में आ जाता है ।
कर्मों के करिश्मे नन्दन मणिहार बड़ा समृद्ध व्यक्ति था। वह अपार ऋद्धि का स्वामी था किन्तु भगवान महावीर का सच्चा श्रावक था। एक महीने में छः पौषध एवं उपवास, बेले, तेले आदि की तपस्या भी किया करता था।
किन्तु जब तक भगवान महावीर के उपदेश वह सुनता रहा, तब तक तो उसकी भावनाएँ दृढ़ रहीं और जब वे प्राप्त नहीं हुए तो विचार करने लगा"अब छोटे-छोटे संतों से क्या उपदेश सुनना ?" परिणाम यह हुआ कि इन संतों की संगति छूट गई और अन्य मत के संतों की संगति बढ़ी। इस कारण व्रतबन्धन भी ढीले पड़ गये।
एक बार नन्दन मणिहार ने तेला किया। गर्मी के दिन थे अतः जिह्वा सूखने लगी। उस समय उसे विचार आया कि तेला करने से मेरी यह हालत हो गई है पर जिन गरीबों को पीने के लिए पानी नहीं मिलता, उनकी क्या दशा होती होगी ? उसकी भावना बदली और राजा श्रेणिक की आज्ञा लेकर उसने जगह-जगह कुएँ, बावड़ियाँ बनवाई और भूखों को भोजन प्राप्त हो, इसके लिए दानशाला भी खुलवा दी । __ यद्यपि दान में पाप नहीं था किन्तु तप-त्याग के प्रति उसकी उदासीनता हो गई और जो समय वह आत्मचिंतन एवं धर्माराधन में लगाता था, वह समय दूसरे कर्मों में व्यतीत करने लगा। कुछ समय पश्चात् उसके शरीर को सोलह भयानक रोगों ने जकड़ लिया। उसने मुनादी भी करवाई कि 'जो कोई मेरा एक भी रोग दूर करेगा उसे मुंह मांगा इनाम दूंगा।' पर किसी के द्वारा उसे रोग से मुक्ति नहीं मिल सकी और उसका अन्तिम समय आ गया।
यद्यपि अन्तिम समय में बारह व्रतधारी श्रावक के हृदय में पूर्ण समाधि भाव होना चाहिए था पर नन्दन मणिहार संतों की संगति छोड़ चुका था और
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