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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
है, वे नारक लब्धिवीर्य और करणवीर्य, दोनों से सवीर्य हैं, और जो नारक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम से रहित हैं, वे लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं, किन्तु करणवीर्य से अवीर्य हैं । इसलिए हे गौतम ! इस कारण से पूर्वोक्त कथन किया गया है ।
___जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कथन किया गया है, उसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक तक के जीवों के लिए समझना चाहिए । मनुष्यों के विषय में सामान्य जीवों के समान समझना चाहिए, विशेषता यह है कि सिद्धों को छोड़ देना चाहिए । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों के समान कथन समझना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१ उद्देशक-९ [९४] भगवन् ! जीव, किस प्रकार शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात से, मृषावाद से, अदत्तादान से, मैथुन से, परिग्रह से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, राग से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, रति-अरति से, परपरिवाद से, मायामृषा से और मिथ्यादर्शनशल्य से; इस प्रकार हे गौतम ! (इन अठारह ही पापस्थानों का सेवन करने से) जीव शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ।
भगवन् ! जीव किस प्रकार शीघ्र लघुत्व को प्राप्त करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात से विरत होने से यावत्मिथ्यादर्शनशल्य से विरत होने से जीव शीघ्र लघुत्व को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार जीव प्राणातिपात आदि पापों का सेवन करने से संसार को बढ़ाते हैं, दीर्घकालीन करते हैं, और बार-बार भव-भ्रमण करते हैं, तथा प्राणातिपति आदि पापों से निवृत्त होने से जीव संसार को परिमित करते हैं, अल्पकालीन करते हैं, और संसार को लांघ जाते हैं । उनमें से चार प्रशस्त हैं, और चार अप्रशस्त हैं ।
[९५] भगवन् ! क्या सातवाँ अवकाशान्तर गुरु है, अथवा वह लघु है, या गुरुलघु है, अथवा अगुरुलघु है ? गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरु-लघु नहीं है, किन्तु अगुरुलघु है । भगवन् ! सप्तम तनुवात क्या गुरु है, लघु है या गुरुलघु है अथवा अगुरुलघु है ? गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरु-लघु है; अगुरुलघु नहीं है । इस प्रकार सप्तम-धनवात, सप्तम घनोदधि और सप्तम पृथ्वी के विषय में भी जानना चाहिए । जैसा सातवें अवकाशान्तर के विषय में कहा है, वैसा ही सभी अवकाशान्तरों के विषय में समझना चाहिए । तनुवात के विषय में जैसा कहा है, वैसा ही सभी घनवात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, समुद्र और क्षेत्रों के विषय में भी जानना चाहिए ।
भगवन् ! नारक जीव गुरु हैं, लघु है, गुरु-लघु हैं या अगुरुलघु हैं ? गौतम ! नारक जीव गुरु नहीं हैं, लघु नहीं, किन्तु गुरुलघु हैं और अगुरुलघु भी हैं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है । गौतम ! वैक्रिय और तैजस शरीर की अपेक्षा नारक जीव गुरु नहीं हैं, लघु नहीं है, अगुरुलघु भी नहीं हैं; किन्तु गुरु-लघु हैं । किन्तु जीव और कार्मणशरीर की अपेक्षा नारक जीव गुरु नहीं हैं, लघु भी नहीं हैं, गुरु-लघु भी नहीं हैं, किन्तु अगुरुलघु हैं । इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन किया गया है । इसी प्रकार वैमानिकों (अन्तिम दण्डक) तक जानना चाहिए, किन्तु विशेष यह है कि शरीरों में भिन्नता कहना चाहिए ।