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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
जोड़कर काया से पर्युपासना करते हैं । जो-जो बातें स्थविर भगवान् फरमा रहे थे, उसे सुनकर- भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह तथ्य है, यही सत्य है, भगवन् ! यह असंदिग्ध है, भगवन् ! यह इष्ट है, यह प्रतीष्ट है, हे भगवन् ! यही इष्ट और विशेष इष्ट है, इस प्रकार वाणी से अप्रतिकूल होकर विनयपूर्वक वाणी से पर्युपासना करते हैं तथा मन से संवेगभाव उत्पन्न करते हुए तीव्र धर्मानुराग में रंगे हुए विग्रह और प्रतिकूलता से रहित बुद्धि होकर, मन को अन्यत्र कहीं न लगाते हए विनयपूर्वक उपासना करते हैं ।
[१३३] तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों तथा उस महती परिषद् (धर्मसभा) को केशीश्रमण की तरह चातुर्याम-धर्म का उपदेश दिया । यावत्...वे श्रमणोपासक अपनी श्रमणोपासकता द्वारा आज्ञा के आराधक हुए । यावत् धर्म-कथा पूर्ण हुई ।
तदनन्तर वे श्रमणोपासक स्थविर भगवन्तों से धर्मोपदेश सुनकर एवं हृदयंगम करके बड़े हर्षित और सन्तुष्ट हुए, यावत् उनका हृदय खिल उठा और उन्होंने स्थविर भगवन्तों की दाहिनी
ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की, यावत् उनकी पर्युपासना की और फिर इस प्रकार पूछाभगवन् ! संयम का क्या फल है ? भगवन् ! तप का क्या फल है ? इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-'हे आर्यो ! संयम का फल आश्रवरहितताहै । तप का फल व्यवदान (कर्मपंक से मलिन आत्मा को शुद्ध करना) है ।
श्रमणोपासकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! यदि संयम का फल अनाश्रवता है और तप का फल व्यवदान है तो देव देवलोकों में किस कारण से उत्पन्न होते हैं ? कालिकपुत्र नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से यों कहा-'आर्यो ! पूर्वतप के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । मेहिल नाम के स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-'आर्यो ! पूर्व-संयम के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं ।'
फिर उनमें से आनन्दरक्षित नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा'आर्यो ! कर्म शेष रहने के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । उनमें से काश्यप नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से कहा-'आर्यो ! संगिता (आसक्ति) के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार हे आर्यो ! पूर्व (रागभावयुक्त) तप से, पूर्व (सराग) संयम से, कर्मों के रहने से, तथा संगिता (द्रव्यासक्ति) से, देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । यह बात सत्य है । इसलिए कही है, हमने अपना आत्मभाव बताने की दृष्टि से नहीं कही है ।'
तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक, स्थविर भगवन्तों द्वारा कहे हुए इन और ऐसे उत्तरों को सुनकर बड़े हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए और स्थविर भगवन्तों को वन्दना नमस्कार करके अन्य प्रश्न भी पूछते हैं, प्रश्न पूछ कर फिर स्थविर भगवन्तों द्वारा दिये गये उत्तरों को ग्रहण करते हैं । तत्पश्चात् वे वहाँ से उठते हैं और तीन बार वन्दना-नमस्कार करते हैं । जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस लौट गए । इधर वे स्थविर भगवन्त भी किसी एक दिन तुंगिका नगरी के उस पुष्पवतिक चैत्य से निकले और बाहर जनपदों में विचरण करने लगे ।
[१३४] उस काल, उस समय में राजगृह नामक नगर था । वहाँ (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे । परिषद् वन्दना करने गई यावत् धर्मोपदेश सुनकर) परिषद् वापस लौट गई । उस काल, उस, समय में श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे । यावत्...वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त करके रखते थे । वे