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भगवती-३/-/७/१९५
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अन्तर तिजारा, चौथिया, उद्धेजक, श्वास, दमा, बलनाशक ज्वर, जरा, दाहज्वर, कच्छ-कोह, अजीर्ण, पाण्डुरोग, अर्शरीग, भगंदर, हृदयशूल, मस्तकपीड़ा, योनिशूल, पार्श्वशूल, कुक्षि शूल, ग्राममारी, नगरमारी, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पट्टण, आश्रम, सम्बाध और सन्निवेश, इन सबकी मारी, प्राणक्षय, धनक्षय, जनक्षय, कुलक्षय, व्यसनभूत अनार्य, ये और इसी प्रकार के दूसरे सब कार्य देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-यम महाराज से अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, अविस्मृत और अविज्ञात नहीं हैं ।
देवेन्द्रदेवराजशक्र के लोकपाल-यम महाराज के देव अपत्यरूप से अभिमत है । [१९६] 'अम्ब, अम्बरिष, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल । तथा
[१९७] अस्पित्र, धनुष, कुम्भ, वालू, वैतरणी, खरस्वर, और महाघोष, ये पन्द्रह विख्यात हैं ।
[१९८] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-यम महाराज की स्थिति तीन भाग सहित एक पल्योपम की है और उसके अपत्यरूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम है । ऐसी महाऋद्धि वाला यावत् यममहाराज है ।
[१९९] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-वरुण महाराज का स्वयंज्वल नामक महाविमान कहाँ है । गौतम ! उस सौधर्मावतंसक महाविमान से पश्चिम में सौधर्मकल्प से असंख्येय हजार योजन पार करने के बाद, स्वयंज्वल नाम का महाविमान आता है; इसका सारा वर्णन सोममहाराज के महाविमान की तरह जान लेना, राजधानी यावत् प्रासादावतंसकों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समझना । केवल नामों में अन्तर है ।
देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वरुण महाराज के ये देव आज्ञा में यावत् रहते हैंवरुणकायिक, वरुणदेवकायिक, नागकुमार-नागकुमारियाँ; उदधिकुमार-उदधिकुमारियाँ स्तनितकुमार-स्तनितकुमारियाँ; ये और दूसरे सब इस प्रकार के देव, उनकी भक्तिवाले यावत् रहते हैं ।
जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दरपर्वत से दक्षिण दिशा में जो कार्य समुत्पन्न होते हैं, वे इस प्रकार हैं-अतिवर्षा, मन्दवर्षा, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, पर्वत आदि से निकलने वाला झरना, सरोवर आदि में जमा हुई जलराशि, पानी का अल्प प्रवाह, प्रवाह, ग्राम का बह जाना, यावत् सन्निवेशवाह, प्राणक्षय यावत् इसी प्रकार के दूसरे सभी कार्य वरुणमहाराज से अथवा वरुणकायिक देवों से अज्ञात आदि नहीं हैं ।
देवेन्द्र देवराज शक्र के (तृतीय) लोकपाल-वरुण महाराज के ये देव अपत्यरूप से अभिमत हैं । यथा-कर्कोटक, कर्दमक, अंजन, शंखपाल, पुण्ड्र, पलाश, मोद, जय, दधिमुख अयंपुल और कातरिक ।
देवेन्द्र देवराज शक्र के तृतीय लोकपाल वरुण महाराज की स्थिति देशोन दो पल्योपम की कही गई है और करुण महाराज के अपत्यरूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है । वरुण महाराज ऐसी महाकृद्धि यावत् महाप्रभाववाला है ।
[२००] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल वैश्रमण महाराज का वल्गु नामक महाविमान कहां है ? गौतम ! सौधर्मावतंसक नामक महाविमान के उत्तर में है । इस सम्बन्ध में सारा वर्णन सोम महाराज के महाविमान की तरह जानना चाहिए; और वह