Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 268
________________ भगवती-९/-/३३/४६४ २६७ चेष्टाओं में विशारद हैं । निर्दोष कुल और शील से सुशोभित हैं, विशुद्ध कुलरूप वंशतन्तु की वृद्धि करने में समर्थ एवं पूर्णयौवन वाली हैं । ये मनोनुकूल एवं हृदय को इष्ट हैं । अतः हे पुत्र ! तू इनके साथ मनुष्यसम्बन्धी विपुल कामभोगों का उपभोग कर और बाद में जब तू भुक्तभोगी हो जाए और विषय-विकारों में तेरी उत्सुकता समाप्त हो जाए, तब हमारे कालधर्म को प्राप्त हो जाने पर यावत् तू प्रव्रजित हो जाना । माता-पिता के पूर्वोक्त कथन के उत्तर में जमालि क्षत्रियकुमार ने अपने माता-पिता से कहा-तथापि आपने जो यह कहा कि विशाल कुल में उत्पन्न तेरी ये आठ पत्नियाँ हैं, यावत् भुक्तभोग और वृद्ध होने पर तथा हमारे कालधर्म को प्राप्त होने पर दीक्षा लेना, किन्तु माताजी और पिताजी ! यह निश्चित है कि ये मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगो, मल, मूत्र, श्लेष्म, सिंघाण, वमन, पित्त, पूति, शुक्र और शोणित से उत्पन्न होते हैं, ये अमनोज्ञ और असुन्दर मूत्र तथा दुर्गन्धयुक्त विष्ठा से परिपूर्ण हैं; मृत कलेवर के समान गन्ध वाले उच्छ्वास एवं अशुभ निःश्वास से युक्त होने से उद्वेग पैदा करने वाले हैं । ये बीभत्स हैं, अल्पकालस्थायी हैं, तुच्छस्वभाव के हैं, कलमल के स्थानरूप होने से दुःखरूप हैं और बहु-जनसमुदाय के लिए भोग्यरूप से साधारण हैं, ये अत्यन्त मानसिक क्लेश से तथा गाढ शारीरिक कष्ट से साध्य हैं । ये अज्ञानी जनों द्वारा ही सेवित हैं, साधु पुरुषों द्वारा सदैव निन्दनीय हैं, अनन्त संसार की वृद्धि करने वाले हैं, परिणाम में कटु फल वाले हैं, जलते हुए घास के पूले की आग के समान कठिनता से छूटने वाले तथा दुःखानुबन्धी हैं, सिद्धि गमन में विघ्नरूप हैं । अतः हे माता-पिता ! यह भी कौन जानता है कि हममें से कौन पहले जाएगा, कौन पीछे ? इसलिए हे आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ । तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि से उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहा-“हे पुत्र ! तेरे पितामह, प्रपितामह और पिता के प्रपितामह से प्राप्त यह बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, उत्तम वस्त्र, विपुल धन, कनक यावत् सारभूत द्रव्य विद्यमान है । यह द्रव्य इतना है कि सात पीढ़ी तक प्रचुर दान दिया जाय, पुष्कल भोगा जाय और बहुत-सा बांटा जाय, तो भी पर्याप्त है । अतः हे पुत्र ! मनुष्य-सम्बन्धी इस विपुल कृद्धि और सत्कार समुदाय का अनुभव कर । फिर इस कल्याण का अनुभव करके और कुलवंशतन्तु की वृद्धि करने के पश्चात् यावत् तू प्रव्रजित हो जाना । इस पर क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से कहा-आपने जो यह कहा कि तेरे पितामह, प्रपितामह आदि से प्राप्त द्रव्य के दान, भोग आदि के पश्चात् यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करना आदि, किन्तु हे माता-पिता ! यह हिरण्य, सुवर्ण यावत् सारभूत द्रव्य अग्नि-साधारण, चोर-साधारण, राज-साधारण, मृत्यु-साधारण, एवं दायाद-साधारण है, तथा अग्नि-सामान्य यावत् दायाद-सामान्य है । यह अध्रुव है, अनित्य है और अशाश्वत है । इसे पहले या पीछे एक दिन अवश्य छोड़ना पड़ेगा । अतः कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा और कौन पीछे जाएगा ? इत्यादि पूर्ववत् कथन, यावत् आपकी आज्ञा प्राप्त हो जाए तो मेरी दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा है । जब क्षत्रियकुमार जमालि को उसके माता-पिता विषय के अनुकूल बहुत-सी उक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों द्वारा कहने, बतलाने और समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषय के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली उक्तियों से समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य, अनुत्तर, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करने वाला है । इसमें तत्पर जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त

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