Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 285
________________ २८४ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद गौतम ! हैं । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के, भारतवर्ष में पलाशक सन्निवेश था । उस सन्निवेश में परस्पर सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक रहते थे, इत्यादि सब वर्णन चरमेन्द्र के त्रायस्त्रिंशकों के अनुसार करना, यावत् विचरण करते थे । वे तेतीस परस्पर सहायक गृहस्थ श्रमणोपासक पहले भी और पीछे भी उग्र, उग्रविहारी एवं संविग्न तथा संविग्रविहारी होकर बहुत वर्षों तक श्रमणोपासकपर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना से शरीर को कृश करके, साठ भक्त का अनशन द्वारा छेदन करके, अन्त में आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल के अवसर पर समाधिपूर्वक काल करके यावत् शक्र के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हुए । 'भगवन् ! जब से वे बालाक निवासी परस्पर सहायक गृहपति श्रमणोपासक शक्र के त्रायस्त्रिंशकों के रूप में उत्पन्न हुए, क्या तभी शक्र के त्रयस्त्रिंशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न समग्र वर्णन पुराने च्यवते हैं और नये उत्पन्न होते हैं; तक चरमेन्द्र के समान करना । भगवन् ! ईशान के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न का उत्तर शक्रेन्द्र के समान जानना चाहिए । इतना विशेष है कि ये चम्पानगरी के निवासी थे, यावत् ईशानेन्द्र के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हुए । जब से ये चम्पानगरी निवासी तेतीस परस्पर सहायक श्रमणोपासक त्रास्त्रिंशक बने, इत्यादि शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् पुराने च्यवते हैं और नये उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! क्या देवराज देवेन्द्र सनत्कुमार के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? हाँ, गौतम हैं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? इत्यादि समग्र प्रश्न तथा उसके उत्तर में जैसे धरणेन्द्र के विषय में कहा है, उसी प्रकार कहना चाहिए । इसी प्रकार प्राणत और अच्युतेन्द्र के त्रयस्त्रिंशक देवों के सम्बन्ध में भी कि पुराने च्यवते हैं और नये उत्पन्न होते हैं, तक कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! शतक - १० उद्देशक - ५ [४८८] उस काल और समय में राजगृह नामक नगर था । वहाँ गुणशीलक नामक उद्यान था । यावत् परिषद् लौट गई । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के बहुत-से अन्तेवासी स्थविर भगवान् जातिसम्पन्न... इत्यादि विशेषणों से युक्त थे, आठवें शतक के सप्तम उद्देशक के अनुसार अनेक विशिष्ट गुणसम्पन्न, यावत् विचरण करते थे । एक बार उन स्थविरों (के मन में श्रद्धा और शंका उत्पन्न हुई । अतः उन्होंने गौतमस्वामी की तरह, यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार पूछा भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? आर्यो ! काली, राजी, रजनी, विद्युत् और मेघा । इनमें से एक-एक अग्रमहिषी का आठ-आठ हजार देवियों का परिवार कहा गया है । एक-एक देवी दूसरी आठ-आठ हजार देवियों के परिवार की विकुर्वणा कर सकती है । इस प्रकार पूर्वापर सब मिला कर चालीस हजार देवियाँ हैं । यह एक त्रुटिक (वर्ग) हुआ । भगवन् ! क्या असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर अपनी चमरचंचा राजधानी की सुधर्मासभा में चमर नामक सिंहासन पर बैठा कर त्रुटिक के साथ भोग्य दिव्य भोगों को भोगने में समर्थ है ? ( हे आर्यो !) यह अर्थ समर्थ नहीं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? आर्यो ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की चमरचंचा नामक राजधानी की सुधर्मासभा में माणवक चैत्यस्तम्भ

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