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भगवती-९/-/३३/४६६
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होने पर मैं पांच सौ अनगारों के साथ इस जनपद से बाहर विहार करना चाहता हूँ । यह सुनकर श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार की इस बात को आदर नहीं दिया, न स्वीकार किया । वे मौन रहे । तब जमालि अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर से दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहा- भंते ! आपकी आज्ञा मिल जाए तो मैं पांच सौ अनगारों के साथ अन्य जनपदों में विहार करना चाहता हूँ । जमालि अनगार के दूसरी बार और तीसरी बार भी वही बात कहने पर श्रमण भगवान् महावीर ने इस बात का आदर नहीं किया, यावत् वे मौन रहे । तब जमालि अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार किया और फिर उनके पास से, बहुशालक उद्यान से निकला और फिर पांच सौ अनगारों के साथ बाहर के जनपदों में विचरण करने लगा ।
उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी । ( वर्णन ) वहाँ कोष्ठक नामक उद्यान था, उसका और वनखण्ड तक का वर्णन ( जान लेना चाहिए ) । उस काल और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी । ( वर्णन ) वहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था । ( वर्णन ) तथा यावत् उसमें पृथ्वीशिलापट्ट था । एक बार वह जमालि अनगार, पांच सौ अनगारों के साथ संपरिवृत्त होकर अनुक्रम से विचरण करता हुआ और ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ श्रावस्ती नगरी में जहाँ कोष्ठक उद्यान था, वहाँ आया और मुनियों के कल्प के अनुरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करने लगा ।
उधर श्रमण भगवन् महावीर भी एक बार अनुक्रम से विचरण करते हुए यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ चम्पानगरी थी और पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे; तथा श्रमणों के अनुरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण कर रहे थे । उस समय जमालि अनगार को अरस, विरस, अन्त प्रान्त, रूक्ष और तुच्छ तथा कालातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त एवं ठंडे पान और भोजनों से एक बार शरीर में विपुल रोगातंक उत्पन्न हो गया । वह रोग उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, चण्ड, दुःख रूप, कष्टसाध्य, तीव्र और दुःसह था । उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त होने के कारण दाह से युक्त हो रहा था ।
वेदना से पीड़ित जमालि अनगार ने तब श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुला कर उनसे कहाहे देवानुप्रियो ! मेरे सोने के लिए तुम संस्तारक बिछा दो । तब श्रमण-निर्ग्रन्थो ने जमालि अनगार की यह बात विनय-पूर्वक स्वीकार की और जमालि अनगार के लिए बिछौना बिछाने लगे । किन्तु जमाल अनगार प्रबलतर वेदना से पीड़ित थे, इसलिए उन्होंने दुबारा फिर श्रमणनिर्ग्रन्थों को बुलाया और उनसे इस प्रकार पूछा- देवानुप्रियो ! क्या मेरे सोने के लिए संस्तारक बिछा दिया या बिछा रहे हो ? इसके उत्तर में श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय के सोने के लिए बिछौना बिछा नहीं, बिछाया जा रहा है ।
श्रमणों की यह बात सुनने पर जमालि अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि चलान चलित है, उदीर्यमाण उदीरित है, यावत् निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण है, यह कथन मिथ्या है; क्योंकि यह प्रत्यक्ष दीख रहा है कि जब तक शय्या - संस्तारक बिछाया जा रहा है, तब तक वह बिछाया गया नहीं है, इस कारण 'चलमान' 'चलित' नहीं, किन्तु 'अचलित' है, यावत् 'निर्जीर्यमाण' 'निर्जीर्ण' नहीं, किन्तु 'अनिर्जीण' है । इस प्रकार विचार कर श्रमणनिर्ग्रन्थों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर जो
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