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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
सामने के रूपों को देखते हुए, पीछे रहे हुए रूपों को देखते हुए, पार्श्ववर्ती, ऊपर के एवं नीचे के रूपों का निरीक्षण करते हुए संवृत अनगार को क्या ऐयापथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? गौतम ! वीचिपथ में स्थित हो कर सामने के रूपों को देखते हुए यावत् नीचे के रूपों का अवलोकन करते हुए संवृत अनगार को ऐपिथिकी क्रिया नहीं लगती, किन्तु साम्परायिकी क्रिया लगती है । भगवन ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि यावत् साम्परायिकी क्रिया लगती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं लगती है ? गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया एवं लोभ व्युच्छिन्न हो गए हों, उसी को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है; इत्यादि सब कथन सप्तम शतक के प्रथम उद्देशक में कहे अनुसार, यह संवृत अनगार सूत्रविरुद्ध आचरण करता है; यहाँ तक जानना चाहिए । इसी कारण हे गौतम ! कहा गया कि यावत् साम्परायिकी क्रिया लगती है ।
भगवन् ! अवीचिपथ में स्थित संवृत अनगार को सामने के रूपो को निहारते हुए यावत् नीचे के रूपों का अवलोकन करते हुए क्या ऐयापथिकी क्रिया लगती है, अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ?; इत्यादि प्रश्न । गौतम ! अकषायभाव में स्थित संवृत अनगार को उपर्युक्त रूपों का अवलोकन करते हुए ऐपिथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती है । भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! सप्तम शतक के सप्तम उद्देशक में वर्णित-ऐसा जो संवृत अनगार यावत् सूत्रानुसार आचरण करता है; इसी कारण मैं कहता हूँ, यावत् साम्परायिक क्रिया नहीं लगती ।
[४७८] भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! योनि तीन प्रकार की कही गई है । वह इस प्रकार-शीत, उष्ण, शीतोष्ण । यहाँ योनिपद कहना चाहिए ।
[४७९] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है । गौतम ! वेदना तीन प्रकार की कही गई है । यथा-शीता, उष्णा और शीतोष्णा यहाँ वेदनापद कहना चाहिए; यावत्'भगवन् ! क्या नैरयिक जीव दुःखरूप वेदना वेदते हैं, या सुखरूप वेदना वेदते हैं, अथवा अदुःख-असुखरूप वेदना वेदते हैं ? हे गौतम ! नैरयिक जीव दुःखरूप वेदना भी वेदते हैं, सुखरूप वेदना भी वेदते हैं और अदुःख-असुखरूप वेदना भी वेदते हैं ।
[४८०] भगवन् ! मासिक भिक्षुप्रतिमा जिस अनगार ने अंगीकार की है तथा जिसने शरीर का त्याग कर दिया है और काया का सदा के लिए व्युत्सर्ग कर दिया है, इत्यादि दशाश्रुतस्कन्ध में बताए अनुसार मासिक भिक्षु प्रतिमा सम्बन्धी समग्र वर्णन करना ।
[४८१] कोई भिक्षु किसी अकृत्य का सेवन करके यदि उस अकृत्यस्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती । यदि वह भिक्षु उस सेवित अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है । कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी अकृत्यस्थान का सेवन कर लिया, किन्तु बाद में उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हो कि मैं अपने अन्तिम समय में इस अकृत्यस्थान की आलोचना करूंगा यावत् तपरूप प्रायश्चित्त स्वीकार करूंगा; परन्तु वह उस अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करे तो उसके आराधना नहीं होती । यदि वह आलोचन और प्रतिक्रमण करके काल करे, तो उसके आराधना होती है ।
कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी अकृत्यस्थान का सेवन कर लिया हो ओर उसके बाद