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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
नष्ट करो तथा इन्द्रियग्राम के कण्टकरूप उपसर्गों पर विजय प्राप्त करो ! तुम्हारा धर्माचरण निर्विघ्न हो !' इस प्रकार से लोग अभिनन्दन एवं स्तुति करने लगे ।
तब औपपातिकसूत्र में वर्णित कूणिक के वर्णनानुसार क्षत्रियकुमार जमालि हजारों की नयनावलियों द्वारा देखा जाता हुआ यावत् निकला । फिर ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहुशालक नामक उद्यान के निकट आया और ज्यों ही उसने तीर्थंकर भगवान् के छत्र आदि अतिशयों को देखा, त्यों ही हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली उस शिबिका को ठहराया और स्वयं उस सहस्त्रपुरुषवाहिनी शिबिका से नीचे उतरा । क्षत्रियकुमार जमालि को आगे करके उसके माता-पिता, जहाँ श्रमण भगवान् महावर विराजमान थे, वहाँ उपस्थित हुए और दाहिनी ओर से तीन वार प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दना-नमस्कार करके कहा-भगवन् ! यह क्षत्रियकुमार जमालि, हमारा इकलौता, इष्ट, कान्त और प्रिय पुत्र है । यावत्-इसका नाम सुनना भी दुर्लभ है तो दर्शन दुर्लभ हो, इसमें कहना ही क्या ! जैसे कोई कमल, पद्म या यावत् सहस्त्रदलकमल कीचड़ में उत्पन्न होने और जल में संवर्द्धित होने पर भी पंकरज से लिप्त नहीं होता, न जलकण से लिप्त होता है; इसी प्रकार क्षत्रियकुमार जमालि भी काम में उत्पन्न हुआ, भोगों में संवर्द्धित हआ; किन्तु काम में रंचमात्र भी लिप्त नहीं हआ और न ही भोग के अंशमात्र से लिप्त है
और न यह मित्र, ज्ञाति, निज-सम्बन्धी, स्वजन-सम्बन्धी और परिजनों में लिप्त हुआ है । हे देवानुप्रिय ! यह संसार-भय से उद्धिन हो गया है, यह जन्म-मरण के भय से भयभीत हो चुका है । अतः आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित हो कर, अगारवास छोड़ कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हो रहा है । इसलिए हम आप देवानुप्रिय को यह शिष्यभिक्षा देते हैं । आप देवानुप्रिय ! इस शिष्य रूप भिक्षा को स्वीकार करें ।
इस पर श्रमण भगवान् महावीर ने उस क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो ।" भगवान् के ऐसा कहने पर क्षत्रियकुमार जमालि हर्षित और तुष्ट हुआ; तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा कर यावत् वन्दना-नमस्कार कर, ईशानकोण में गया । वहाँ जा कर उसने स्वयं ही आभूषण, माला और अलंकार उतार दिये । तत्पश्चात् जमालि क्षत्रियकुमार की माता ने उन आभूषणों, माला एवं अलंकारों को हंस के चिह्न वाले एक पटशाटक में ग्रहण कर लिया और फिर हार, जलधारा इत्यादि के समान यावत् आंसू गिराती हुई अपने पुत्र से इस प्रकार बोली-हे पुत्र ! संयम में चेष्टा करना, पुत्र ! संयम में यत्न करना; हे पुत्र ! संयम में पराक्रम करना । इस विषय में जरा भी प्रमाद न करना । इस प्रकार कह कर क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस चले गए ।
इसके पश्चात् जमालिकुमार ने स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया, फिर श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुआ और ऋषभदत्त ब्राह्मण की तरह भगवान् के पास प्रव्रज्या अंगीकार की । विशेषता यह है कि जमालि क्षत्रियकुमार ने ५०० पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की, शेष सब वर्णन पूर्ववत् है, यावत् जमालि अनगार ने सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुत-से उपवास, बेला, तेला, यावत अर्द्धमास, मासखमण इत्यादि विचित्र तपःकर्मों से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करने लगा।
[४६६] तदनन्तर एक दिन जमालि अनगार श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले-भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त