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भगवती-६/-/१०/३२०
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जो अन्यतीर्थिक कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि सम्पूर्ण लोक में रहे हुए सर्व जीवों के सुख या दुःख को कोई भी पुरुष यावत् किसी भी प्रमाण में बाहर निकालकर नहीं दिखा सकता । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! यह जम्बूद्वीप एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है | इसकी परिधि ३ लाख १६ हजार दो सौ २७ योजन, ३ कोश, १२८ धनुष
और १३ अंगल से कुछ अधिक है । कोई महर्द्धिक यावत महानभाग देव एक बडे विलेपनवाले गन्धद्रव्य के डिब्बे को लेकर उघाड़े और उघाड़ कर तीन चुटकी बजाए, उतने समय में उपर्युक्त जम्बूद्वीप की २१ बार परिक्रमा करके वापस शीघ्र आए तो हे गौतम ! उस देव की इस प्रकार की शीघ्र गति से गन्ध पुद्गलों के स्पर्श से यह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हुआ या नहीं ? हां भगवन् ! वह स्पृष्ट हो गया । हे गौतम ! कोई पुरुष उन गन्धपुद्गलों को बेर की गुठली जितना भी, यावत् लिक्षा जितना भी दिखलाने में समर्थ है ? भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । हे गौतम ! इसी प्रकार जीव के सुख-दुःख को भी बाहर निकाल कर बतलाने में, यावत् कोई भी व्यक्ति समर्थ नहीं है ।।
३२१] भगवन् ! क्या जीव चैतन्य है या चैतन्य जीव है ? गौतम ! जीव तो नियमतः चैतन्य स्वरूप है और चैतन्य भी निश्चितरूप से जीवरूप है । भगवन् ! क्या जीव नैरयिक है या नैरयिक जीव है ? गौतम ! नैरयिक तो नियमतः जीव है और जीव तो कदाचित् नैरयिक भी हो सकता है, कदाचित् नैरयिक से भिन्न भी हो सकता है । भगवन् ! क्या जीव, असुरकुमार है या असुरकुमार जीव है ? गौतम ! असुरकुमार तो नियमतः जीव है, किन्तु जीव तो कदाचित् असुरकुमार भी होता है, कदाचित् असुरकुमार नहीं भी होता । इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक सभी दण्डक (आलापक) कहने चाहिए ।
भगवन् ! जो जीता-प्राण धारण करता है, वह जीव कहलाता है, या जो जीव है, वह जीता-प्राण धारण करता है ? गौतम ! जो जीता- है, वह तो नियमतः जीव कहलाता है, किन्तु जो जीव होता है, वह प्राण धारण करता भी है और नहीं भी करता । भगवन् ! जो जीता है, वह नैरयिक कहलाता है, या जो नैरयिक होता है, वह जीता है ? गौतम ! नैरयिक तो नियमतः जीता है, किन्तु जो जीता है, वह नैरयिक भी होता है, और अनैरयिक भी होता है । इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए ।।
भगवन् ! जो भवसिद्धिक होता है, वह नैरयिक होता है, या जो नैरयिक होता है, वह भवसिद्धिक होता है ? गौतम ! जो भवसिद्धिक होता है, वह नैरयिक भी होता है और अनैरयिक भी होता है तथा जो नैरयिक होता है, वह भवसिद्धिक भी होता है और अभवसिद्धिक भी होता है । इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त सभी दण्डक कहने चाहिए ।
[३२२] भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्तदुःखरूप वेदना को वेदते हैं, तो भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? गौतम ! अन्यतीर्थिक जो यह कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ-कितने ही प्राण, भूत, जीव
और सत्त्व, एकान्तदुःखरूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् साता रूप वेदना भी वेदते हैं; कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्तसाता रूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् असाता रूप