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भगवती-८/-/१/३८३
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प्रयोग - परिणत पुद्गल । इसी प्रकार गर्भज- जलचर सम्बन्धी प्रयोगपरिणत पुद्गलों के प्रकार के विषय में जानना । इसी प्रकार सम्मूर्च्छिम-चतुष्पदस्थलचर तथा गर्भज-चतुष्पदस्थलचर सम्बन्धी प्रयोग- परिणत पुद्गलों के विषय में भी जानना । यावत् सम्मूर्च्छिम खेचर और गर्भज खेचर से सम्बन्धित-प्रयोगपरिणत पुद्गलों के दो-दो भेद कहना ।
भगवन् ! सम्मूर्च्छिम-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! वे एक प्रकार के कहे गए हैं, यथा - अपर्याप्तक- सम्मूर्च्छिम मनुष्य - पंचेन्द्रियप्रयोग - परिणत पुद्गल । भगवन् ! गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग - परिणत पुद्गल कितने प्रकार कहे गए हैं ? गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार -पर्याप्तक और अपर्याप्तकगर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग - परिणत पुद्गल ।
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भगवन् ! असुरकुमार-भवनवासीदेव - प्रयोग परिणित पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं । गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-पर्याप्तक- असुरकुमार भवन- वासीदेव-प्रयोगपरिणत - पुद्गल और अपर्याप्तक- असुरकुमार-भवनवासीदेव - प्रयोग - परिणत पुद्गल । इसी प्रकार स्तनितकुमार-भवनवासीदेव तक प्रयोग - परिणत पुद्गलों के, ये दो-दो भेद कहने चाहिये । इसी प्रकार पिशाचों से लेकर गन्धर्वों तक के तथा चन्द्र से लेकर तारा पर्यन्त ज्योतिष्क देवों के एवं सौधर्मकल्पोपपन्नक से अच्युतकल्पोपपन्नक तक के और अधस्तन - अधस्तन ग्रैवेयक कल्पातीत से लेकर उपरितन- उपरितन ग्रैवेयक कल्पातीत देवप्रयोग- परिणत पुद्गलों के एवं विजय- अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत से अपराजित - अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतदेव प्रयोग- परिणत पुद्गलों के प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो-दो भेद कहने चाहिए । भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीतदेव-प्रयोग- परिणत पुद्गलों के कितने प्रकार हैं ? गौतम दो प्रकार के हैं, यथा- पर्याप्तक और अपर्याप्तक - सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक - कल्पातीतदेव - प्रयोग - परिणत पुद्गल ।
जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म- पृथ्वीकाय - एकेन्द्रिय-प्रयोग - परिणत हैं, वे औदारिक, तैजस और कार्मण- शरीर-प्रयोग-परिणत हैं । जो पुद्गल पर्याप्तक- सूक्ष्म- पृथ्वीकाय - एकेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत हैं, वे भी औदारिक, तैजस और कार्मण-शरीर-प्रयोग- परिणत हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियपर्याप्तक तक के ( प्रयोग - परिणत पुद्गलों के विषय में) जानना चाहिए । परन्तु विशेष इतना है कि जो पुद्गल पर्याप्त - बादर- वायुकायिक- एकेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत हैं, वे औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण- शरीर - प्रयोग - परिणत हैं । शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए ।
जो पुद्गल अपर्याप्तक- रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग - परिणत हैं, वे वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर प्रयोग- परिणत हैं । इसी प्रकार पर्याप्तक- रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक-पंचेन्द्रियप्रयोग - परिणत पुद्गलों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए । इसी प्रकार यावत् अधः सप्तमपृथ्वीनैरयिक- प्रयोग - परिणत- पुद्गलों तक के सम्बन्ध में कहना चाहिए ।
जो पुद्गल अपर्याप्तक- सम्मूच्छिम- जलचर-प्रयोग- परिणत हैं, वे औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर-प्रयोग- परिणत हैं । इसी प्रकार पर्याप्तक के सम्बन्ध में जानना चाहिए । गर्भजअपर्याप्तक- जलचर- (प्रयोग - परिणत - पुद्गलों) के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए । गर्भज-पर्याप्तक- जलचर- (प्रयोग- परिणत- पुद्गलों) के विषय में भी इसी तरह जानना चाहिए । विशेष यह कि पर्याप्तक बादर वायुकायिकवत् उनको चार शरीर (प्रयोग - परिणत ) कहना चाहिए ।
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