Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 203
________________ २०२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद द्रव्य परिमण्डलसंस्थानरूप से परिणत होते हैं, यावत् अनन्त द्रव्य आयतसंस्थानरूप से परिणत होते हैं । [३८८] भगवन् ! प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विस्त्रसापरिणत, इन तीनों प्रकार के पुद्गलों में कौन-से (पुद्गल), किन (पुद्गलों) से अल्प, बहत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! प्रयोगपरिणत पुद्गल सबसे थोड़े हैं, उनसे मिश्रपरिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं और उनसे विस्त्रसापरिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | शतक-८ उद्देशक-२ | [३८९] भगवन् ! आशीविष कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं । - जाति-आशीविष और कर्म-आशीविष । भगवन् ! जाति-आशीविष कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! चार प्रकार के जैसे -वृश्चिकजाति-आशीविष, मण्डूकजाति-आशीविष, उरगजातिआशीविष और मनुष्यजाति-आशीविष । भगवन् ! वृश्चिकजाति-आशीविष का कितना विषय है ? गौतम ! वह अर्द्धभरतक्षेत्र-प्रमाण शरीर को विषयुक्त- या विष से व्याप्त करने में समर्थ है । इतना उसके विष का सामर्थ्य है, किन्तु सम्प्राप्ति द्वारा उसने न ऐसा कभी किया है, न करता है और न कभी करेगा । भगवन् ! मण्डूकजाति-आशीविष का कितना विषय है ? गौतम ! वह अपने विष से भरतक्षेत्र-प्रमाण शरीर को विषैला करने एवं व्याप्त करने में समर्थ है । शेष सब पूर्ववत् जानना, यावत् सम्प्राप्ति से उसने कभी ऐसा किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं । इसी प्रकार उरगजाति-आशीविष के सम्बन्ध में जानना । इतना विशेष है कि वह जम्बूद्वीप-प्रमाण शरीर को विष से युक्त एवं व्याप्त करने में समर्थ है । यह उसका सामर्थ्यमात्र है, किन्तु सम्प्राप्ति से यावत करेगा भी नहीं । इसी प्रकार मनुष्यजाति-आशीविप के सम्बन्ध में भी जानना । विशेष इतना है कि वह समयक्षेत्र प्रमाण शरीर को विष से व्याप्त कर सकता है, शेष कथन पूर्ववत्, यावत्, करेगा भी नहीं । भगवन् ! यदि कर्म-आशीविष है तो क्या वह नैरयिक-कर्म-आशीविष है, या तिर्यञ्चयोनिक, अथवा मनुष्य या देव-कर्म-आशीविष है ? गौतम ! नैरयिक-कर्म-आशीविष नहीं, किन्तु तिर्यञ्चयोनिक-कर्म-आशीविष है, मनुष्य-कर्म-आशीविष है और देव-कर्म-आशीविष है । भगवन् ! यदि तिर्यञ्चयोनिक-कर्म-आशीविष है, तो क्या एकेन्द्रिय यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-कर्म-आशीविष है ? गौतम ! एकेन्द्रिय, यावत् चतुरिन्द्रिय कर्म-आशीविष नहीं, परन्तु पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-कर्म-आशीविष है । भगवन् ! यदि पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-कर्मआशीविष है तो क्या सम्मूर्छिम है या गर्भज-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-कर्म-आशीविष है ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के सम्बन्ध के समान पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयुष्यवाला गर्भजकर्मभूमिज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-कर्म-आशीविष होता है; परन्तु अपर्याप्त संख्यात वर्ष को आयुष्य वाला कर्मआशीविष नहीं होता तक कहना । भगवन् ! यदि मनुष्य-कर्म-आशीविष है, तो क्या सम्मूर्छिम-मनुष्य-कर्माशीविष है, या गर्भज मनुष्य-कर्म-आशीविष है ? गौतम ! सम्मूर्छिम-मनुष्य-कर्म-आशीविष नहीं होता, किन्तु गर्भज-मनुष्यकर्म-आशीविष होता है । प्रज्ञापनासूत्र के शरीरपद में वैक्रियशरीर के सम्बन्ध के अनुसार यहाँ भी पर्याप्त संख्यात वर्ष का आयुष्यवाला कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य-कर्म-आशीविष होता है; परन्तु अपर्याप्त यावत्

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