Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 222
________________ भगवती-८/-/७/४१० २२१ कष्ट देते हो और उपद्रवित करते-मारते हो | इस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए यावत् मारते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो ।" तब उन स्थविरों ने कहा-'आर्यो ! हम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते नहीं, हनते नहीं, यावत् मारते नहीं । हे आर्यो! हम गमन करते हुए काय के लिए, योग के लिए, ऋत (संयम) के लिए एक देश से दूसरे देश में और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हैं । इस प्रकार एक स्थल से दूसरे स्थल में और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हुए हम पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते नहीं, उनका हनन नहीं करते, यावत् उनको मारते नहीं । इसलिए हम त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत, यावत् एकान्तपण्डित हैं । किन्तु हे आर्यो ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हो ।" इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने पूछा-"आर्यो ! हम किस कारण त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हैं ?" तब स्थविर भगवन्तों ने कहा-"आर्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हो, यावत् मार देते हो । इसलिए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए, यावत् मारते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो ।" इस पर वे अन्यतीर्थिक बोले-हे आर्यो ! तुम्हारे मत में जाता हुआ, नहीं गया कहलाता है; जो लांघा जा रहा है, वह नहीं लांघा गया, कहलाता है, और राजगृह को प्राप्त करने की इच्छावाला पुरुष असम्प्राप्त कहलाता है । तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने कहा-आर्यो ! हमारे मत में जाता हआ नहीं गया नहीं कहलाता, व्यतिक्रम्यमाण अव्यतिक्रान्त नहीं कहलाता । इसी प्रकार राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छावाला व्यक्ति असंप्राप्त नहीं कहलाता । हमारे मत में तो, आर्यो ! 'गच्छन्' 'गत्'; 'व्यतिक्रम्यमाण' 'व्यतिक्रान्त' और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छावाला व्यक्ति सम्प्राप्त कहलाता है । हे आर्यो ! तुम्हारे ही मत में 'गच्छन्' 'अगत', 'व्यतिक्रम्यमाण' 'अव्यतिक्रान्त' और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छावाला असम्प्राप्त कहलाता है । उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर करके उन्होंने गतिप्रपात नामक अध्ययन प्ररूपित किया । [४११] भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! गतिप्रपाल पांच प्रकार का है । यथा-प्रयोगगति, ततगति, बन्धन-छेदनगति, उपपातगति और विहायोगति । यहाँ से प्रारम्भ करके प्रज्ञापनासूत्र का सोलहवाँ समग्र प्रयोगपद यावत् 'यह विहायोगति का वर्णन हुआ'; यहाँ तक कथन करना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है | | शतक-८ उद्देशक-८ । [४१२] राजगृह नगर में (गौतम स्वामी ने) यावत् इस प्रकार पूछा-भगवन् ! गुरुदेव की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं, आचार्य प्रत्यनीक, उपाध्यायप्रत्यनीक और स्थविरप्रत्यनीक ।। भगवन् ! गति की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक हैं ? गौतम ! तीन-इहलोकप्रत्यनीक, परलोकप्रत्यनीक और उभयलोकप्रत्यनीक । भगवन् ! समूह की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक हैं ? गौतम ! तीन–कुलप्रत्यनीक, गणप्रत्यनीक और संघप्रत्यनीक । भगवन् ! अनुकम्प्य (साधुओं) की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? गौतम !

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