Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 246
________________ भगवती-९/-/३१/४४७ २४५ गौतम ! वह साकारोपयोग-युक्त भी होता है और अनाकारोपयोग-युक्त भी होता है । __ भगवन् ! वह किस संहनन में होता है ? गौतम ! वह वज्रकृषभनाराचसंहनन वाला होता है । भगवन् ! वह किस संस्थान में होता है ? गौतम ! वह छह संस्थानों में से किसी भी संस्थान में होता है । भगवन् ! वह कितनी ऊँचाई वाला होता है ? गौतम ! वह जघन्य सात हाथ और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष ऊँचाई वाला होता है । भगवन् ! कितनी आयुष्य वाला होता है ? गौतम ! वह जघन्य साधिक आठ वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि आयुष्यवाला होता है । भगवन् ! वह सवेदी होता है या अवेदी ? गौतम ! वह सवेदी होता है, अवेदी नहीं होता । भगवन् ! यदि वह सवेदी होता है तो क्या स्त्रीवेदी होता है, पुरुषवेदी होता है, नपुंसकवेदी होता है, या पुरुष-नपुंसक वेदी होता है ? गौतम ! वह स्त्रीवेदी नहीं होता, पुरुषवेदी होता है, नपुंसकवेदी नहीं होता, किन्तु पुरुष-नपुंसकवेदी होता है । भगवन् ! क्या वह सकषायी होता है, या अकषायी ? गौतम ! वह सकषायी होता है, अकषायी नहीं । भगवन् ! यदि वह सकषायी है, तो वह कितने कषायों वाला है ? गौतम ! वह संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ; से युक्त होता है । भगवन् ! उसके कितने अध्यवसाय कहे हैं ? गौतम ! उसके असंख्यात अध्यवसाय कहे हैं । भगवन् ! उसके वे अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त होते हैं ? गौतम ! वे प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं होते हैं । वह अवधिज्ञानी बढ़ते हुए प्रशस्त अध्यवसायों से अनन्त नैरयिकभव-ग्रहणों से, अनन्त तिर्यञ्चयोनिक भवों से, अनन्त मनुष्यभव-ग्रहणों से और अनन्त देवभवों से अपनी आत्मा को वियुक्त कर लेता है । जो ये नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति नामक चार उत्तर प्रकृतियाँ हैं, उन प्रकृतियों के आधारभूत अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करके अप्रत्याख्यान-क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करता है, फिर प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है; फिर संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है । फिर पंचविध ज्ञानावरणीयकर्म, नवविध दर्शनावरणीयकर्म, पंचविध अन्तरायकर्म को तथा मोहनीयकर्म को कटे हुए ताड़वृक्ष के समान बना कर, कर्मरज को बिखेरने वाले अपूर्वकरण में प्रविष्ट उस जीव के अनन्त, अनुत्तर, व्याघातरहित, आवरणरहित, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होता है । [४४८] भगवन् ! वे असोच्चा केवली केवलिप्ररूपित धर्म कहते हैं, बतलाते हैं अथवा प्ररूपणा करते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । वे एक उदाहरण के अथवा एक प्रश्न के उत्तर के सिवाय अन्य उपदेश नहीं करते । भगवन् ! वे (किसी को) प्रव्रजित या मुण्डित करते हैं ? गौतम ! वह अर्थ समर्थ नहीं । किन्तु उपदेश करते हैं । भगवन् ! वे सिद्ध होते हैं, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ? हाँ, गौतम ! करते हैं । [४४९] भगवन् ! वे असोच्चा कवली ऊर्ध्वलोक में होते है, अधोलोक में होते हैं या तिर्यक्लोक में होते हैं ? गौतम ! वे तीनो लोक में भी होते हैं । यदि ऊर्ध्वलोक में होते हैं तो शब्दापाती, विकटापाती, गन्धापाती और माल्यवन्त नामक वृत्त (वैताढ्य) पर्वतों में होते हैं तथा संहरण की अपेक्षा सौमनसवन में अथवा पाण्डुकवन में होते हैं । यदि अधोलोक में

Loading...

Page Navigation
1 ... 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290