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भगवती-९/-/३३/४६२
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तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीरस्वामी से धर्म सुन कर एवं हृदयंगम करके वह देवानन्दा ब्राह्मणी अत्यन्त हृष्ट एवं तुष्ट हुई और श्रमण भगवान् महावीर की तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार करके इस प्रकार बोली-भगवन् ! आपने जैसा कहा है, वैसा ही है, भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है । इस प्रकार ऋषभदत्त के समान देवानन्दा ने भी निवेदन किया; और-धर्म कहा'; यहाँ तक कहना चाहिए । तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने देवानन्दा ब्राह्मणी को स्वयमेव प्रव्रजित कराया, स्वयमेव मुण्डित कराया और स्वयमेव चन्दना आर्या को शिष्यारूप में सौंप दिया ।
तत्पश्चात् चन्दना आर्या ने देवानन्दा ब्राह्मणी को स्वयं प्रव्रजित किया, स्वयमेव मुण्डित किया और स्वयमेव उसे शिक्षा दी । देवानन्दा ने भी ऋषभदत्त के समान इस प्रकार के धार्मिक उपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया और वह उनकी आज्ञानुसार चलने लगी, यावत् संयम में सम्यक् प्रवृत्ति करने लगी । तदनन्तर आर्या देवानन्दा ने आर्य चन्दना से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । शेष वर्णन पूर्ववत्, यावत् समस्त दुःखों से रहित हुई।
[४६३] उस ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर से पश्चिम दिशा में क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर था । (वर्णन) उस क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में जमालि नाम का क्षत्रियकुमार रहता था । वह आढ्य, दीप्त यावत् अपरिभूत था । वह जिसमें मृदंग वाद्य की स्पष्ट ध्वनि हो रही थी, बत्तीस प्रकार के नाटकों के अभिनय और नृत्य हो रहे थे, अनेक प्रकार की सुन्दर तरुणियों द्वारा सम्प्रयुक्त नृत्य और गुणगान बार-बार किये जा रहे थे, उसकी प्रशंसा से भवन गुंजाया जा रहा था, खुशियां मनाई जा रही थी, ऐसे अपने उच्च श्रेष्ठ प्रासाद-भवन में प्रावृट्, वर्षा, शरद, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म, इन छह ऋतुओं में अपने वैभव के अनुसार आनन्द मनाता हुआ, समय बिताता हुआ, मनुष्यसम्बन्धी पांच प्रकार के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, वाले कामभोगों का अनुभव करता हुआ रहता था ।
उस दिन क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में श्रृगाटक, त्रिक, चतुष्क और चत्वर यावत् महापथ पर बहुत-से लोगों का कोलाहल हो रहा था, इत्यादि औपपातिकसूत्र कि तरह जानना चाहिए; यावत् बहुत-से लोग परस्पर एक-दूसरे से कह रहे थे 'देवानुप्रियो ! आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर, इस ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहुशाल नामक उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरते हैं । अतः हे देवानुप्रियो ! तथारूप अरिहन्त भगवान् के नाम, गोत्र के श्रवण-मात्र से महान् फल होता है; इत्यादि वर्णन औपपातिकसूत्र अनुसार, यावत् वह जनसमूह तीन प्रकार की पर्युपासना करता है ।
तब बहुत-से मनुष्यों के शब्द और उनका परस्पर मिलन सुन और देख कर उस क्षत्रियकुमार जमालि के मन में विचार यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ–'क्या आज क्षत्रियकुण्डग्राम नगर में इन्द्र का उत्सव है ?, अथवा स्कन्दोत्सव है ?, या मुकुन्द महोत्सव है ? नाग का, यक्ष का अथवा भूतमहोत्सव है ? या किसी कूप का, सरोवर का, नदी का या द्रह का उत्सव है ?, अथवा किसी पर्वत का, वृक्ष का, चैत्य का अथवा स्तूप का उत्सव है ?, जिसके कारण ये बहुत-से उग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञातृ, कौरव्य, क्षत्रियपुत्र, भट, भटपुत्र, सेनापति, सेनापतिपुत्र, प्रशास्ता एवं प्रशास्तूपुत्र, लिच्छवी, लिच्छवीपुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणपुत्र एवं इभ्य इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् सार्थवाह-प्रमुख, स्नान आदि करके यावत् बाहर निकल रहे हैं ?' इस प्रकार विचार करके उसने कंचुकीपुरुष को बुलाया और उससे