Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 218
________________ भगवती-८/-/६/४०७ २१७ वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं । (उपर्युक्त अकृत्यसेवी) निर्ग्रन्थ स्थविर मुनिवरों के पास आलोचनादि के लिए खाना हुआ, किन्तु उसके पहुंचने से पूर्व ही वे स्थविर मुनि काल कर जाएँ, तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है विराधक ? गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं । भगवन् ! (उपर्युक्त अकृत्य-सेवन करके) वह निर्ग्रन्थ स्थविरों के पास आलोचनादि करने के लिए निकला, किन्तु वहाँ पहुँचा नहीं, उससे पूर्व ही स्वयं काल कर जाए तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक हे या विराधक ? गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं । उपर्युक्त अकृत्यसेवी निर्ग्रन्थ ने तत्क्षण आलोचनादि करके स्थविर मुनिवरों के पास आलोचनादि करने हेतु प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुँच गया, तत्पश्चात् वे स्थविर मुनि मूक हो जाएँ, तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं । (उपर्युक्त अकृत्यसेवी मुनि) स्वयं आलोचनादि करके स्थविरों की सेवा में पहुँचते ही स्वयं मूक हो जाए, जिस प्रकार स्थविरों के पास न पहुँचे हुए निर्ग्रन्थ के चार आलापक कहे गए हैं, उसी प्रकार सम्प्राप्त निर्ग्रन्थ के भी चार आलापक कहने चाहिए । बाहर विचारभूमि (स्थण्डिभूमि) अथवा विहारभूमि (स्वाध्यायभूमि) की ओर निकले हुए निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन हो गया हो, तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि 'पहले मैं स्वयं यहीं इस अकृत्य की आलोचनादि करूं, इत्यादि पूर्ववत् । यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से असम्प्राप्त और सम्प्राप्त दोनों के आठ आलापक कहने चाहिए । यावत् वह निर्ग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं; ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए किसी निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्काल उसके मन में यह विचार स्फुरित हो कि 'पहले मैं यहीं इस अकृत्य की आलोचनादि करूं; इत्यादि सारा वर्णन पूर्ववत् । यहाँ भी पूर्ववत् आठ आलापक कहना, यावत् वह आराधक है, विराधक नहीं । गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट किसी निर्ग्रन्थी (साध्वी) ने किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन कर लिया, किन्तु तत्काल उसको ऐसा विचार स्फुरित हुआ कि मैं स्वयमेव पहले यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना कर लूं, यावत् प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर लूं । तत्पश्चात् प्रवर्तिनी के पास आलोचना कर लूंगी यावत् तपःकर्म स्वीकार कर लूंगी । ऐसा विचार कर उस साध्वी ने प्रवर्तिनी के पास जाने के लिए प्रस्थान किया, प्रवर्तिनी के पास पहुँचने से पूर्व ही वह प्रवर्तिनी मूक हो गई, तो हे भगवन् ! वह साध्वी आराधिका है या विराधिका ? गौतम ! वह साध्वी आराधिका है, विराधिका नही । जिस प्रकार संप्रस्थित निर्ग्रन्थ के तीन पाठ हैं उसी प्रकार सम्प्रस्थित साध्वी के भी तीन पाठ कहने चाहिए और वह साध्वी आराधिका है, विराधिका नहीं । भगवन् ! किस कारण से आप कहते हैं, वे आराधक हैं, विराधक नहीं ? गौतम ! जैसे कोई पुरुष एक बड़े ऊन के बाल के या हाथी के रोम के अथवा सण के रेशे के या कपास के रेशे के अथवा तृण के अग्रभाग के दो, तीन या संख्यात टुकड़े करके अग्निकाय में डाले तो हे गौतम ! काटे जाते हुए वे (टुकड़े) काटे गए, अग्नि में डाले जाते हुए को डाले गए या जलते हुए को जल गए, इस प्रकार कहा जा सकता है ? हाँ भगवन् ! काटे जाते हुए काटे गए अग्नि में डाले जाते हुए डाले गए और जलते हुए जल गए; यों कहा जा सकता

Loading...

Page Navigation
1 ... 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290