________________
भगवती - ८/-/५/४०२
करता नहीं, ४९. अथवा काया से अनुमोदन करता नहीं ।
भगवन् ! वर्तमानकालीन संवर करता हुआ श्रावक त्रिविध- त्रिविध संवर करता है ? गौतम ! जो उनचास भंग प्रतिक्रमण के विषय में कहे गए हैं, वे ही संवर के विषय में कहने चाहिए । भगवन् ! भविष्यत् काल का प्रत्याख्यान करता हुआ श्रावक क्या त्रिविध-त्रिविध प्रत्याख्यान करता है ? गौतम ! पहले कहे अनुसार यहाँ भी उनचास भंग कहना ।
२१५
भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान नहीं किया, किन्तु पीछे वह स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है ? गौतम ! प्राणातिपात के समान मृषावाद के सम्बन्ध में भी एक सौ सैंतालीस भंग कहना । इसी प्रकार स्थूल अदत्तादान के विषय में, स्थूल मैथुन के विषय में एवं स्थूल परिग्रह के विषय में भी पूर्ववत् प्रत्येक के एक सौ सैंतालीस - एक सौ सैंतालीस त्रैकालिक भंग कहना |
श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, किन्तु आजीविकोपासक ऐसे नहीं होते ।
[४०३] आजीविक के सिद्धान्त का यह अर्थ है कि समस्त जीव अक्षीणपरिभोजी होते हैं । इसलिए वे हनन करके, काट कर, भेदन करके, कतर कर, उतार कर और विनष्ट करके खाते हैं । ऐसी स्थिति (संसार के समस्त जीव असंयत और हिंसादिदोषपरायण हैं) में आजीविक मत में ये बारह आजीविकोपासक हैं-ताल, तालप्रलम्ब, उद्विध, संविध, अवविध, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अनुपालक, शंखपालक, अयम्बुल और कातरक |
1
इस प्रकार ये बारह आजीविकोपासक हैं । इनका देव अरहंत है । वे माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा करते हैं । वे पांच प्रकार के फल नहीं खाते - उदुम्बर के फल, वड़ के फल, बोर, सत्तर के फल, पीपल फल तथा प्याज, लहसुन, कन्दमूल के त्यागी होते हैं तथा अनिलछित और नाक नहीं थे हुए बैलों से त्रस प्राणी की हिंसा से रहित व्यापार द्वारा आजीविका करते हुए विहरण करते हैं । जब इन आजीविकोपासकों को यह अभीष्ट है, तो फिर जो श्रमणोपासक
उनका तो कहना ही क्या ? जो श्रमणोपासक होते हैं, उनके लिए ये पन्द्रह कर्मादान स्वयं करना, दूसरों से कराना और करते हुए का अनुमोदन करना कल्पनीय नहीं हैं, यथा - अंगारकर्म, वनकर्म, शाकटिककर्म, भाटीकर्म, स्फोटककर्म, दन्तवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, यंत्रपीडनकर्म, निर्लाछनकर्म, दावाग्निदापनता, सरो-हृद - तडागशोषणता और असतीपोषणता । ये श्रमणोपासक शुक्ल, शुक्लाभिजात हो कर काल के समय मृत्यु प्राप्त करके किन्हीं देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं ।
[४०४] भगवन् ! देवलोक कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! चार प्रकार के यथाभवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक-८ उद्देशक- ६
[४०५] भगवन् ! तथारूप श्रमण अथवा माहन को प्रासुक एवं एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार द्वारा प्रतिलाभित करनेवाले श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? गौतम ! वह एकान्त रूप से निर्जरा करता है; उसके पापकर्म नहीं होता । भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? गौतम ! उसके बहुत निर्जरा होती है, और