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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञान के पर्याय हैं, उनसे विभंगज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं, उनसे अवधिज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं, उनसे श्रुत-अज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं, उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय विशेषाधिक हैं, उनसे मति-अज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं, उनसे आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय विशेषाधिक हैं और केवलज्ञान के पर्याय उनसे अनन्तगुणे हैं । 'हे. भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है'; यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे ।
| शतक-८ उद्देशक-३ | [३९७] भगवन् ! वृक्ष कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! वृक्ष तीन प्रकार के कहे गए हैं, संख्यातजीववाले, असंख्यातजीववाले और अनन्तजीववाले ।
भगवन् ! संख्यातजीववाले वृक्ष कौन-से हैं ? गौतम ! अनेकविध, जैसे-ताड़, तमाल, तक्कलि, तेतलि इत्यादि, प्रज्ञापनासूत्र में कहे अनुसार नारिकेल पर्यन्त जानना । ये और इस प्रकार के जितने भी वृक्षविशेष हैं, वे सब संख्यातजीववाले हैं ।
- भगवन् ! असंख्यातजीव वाले वृक्ष कौन-से हैं ? गौतम ! दो प्रकार के, यथाएकास्थिक और बहुबीजक भगवन् एकास्थिक वृक्ष कौन-से हैं ? गौतम ! अनेक प्रकार के कहे गए हैं, जैसे-नीम, आम, जामुन आदि । इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र में कहे अनुसार 'बहुबीज वाले फलों' तक कहना।
भगवन् ! अनन्तजीव वाले वृक्ष कौन-से हैं ? गौतम ! अनेक प्रकार के हैं, जैसेआलू, मूला, श्रृंगबेर आदि । भगवतीसूत्र के सप्तम शतक के तृतीय उद्देशक में कहे अनुसार 'सिउंढी, मुसुंढी' तक जानना । ये और जितने भी इस प्रकार के अन्य वृक्ष हैं, उन्हें भी जान लेना । यह हुआ उन अनन्तजीव वाले वृक्षों का कथन ।
[३९८] भगवन् ! कछुआ, कछुओं की श्रेणी, गोधा, गोधा की श्रेणी, गाय, गायों की पंक्ति, मनुष्य, मनुष्यों की पंक्ति, भैंसा, भैंसों की पंक्ति, इन सबके दो या तीन अथवा संख्यात खण्ड किये जाएँ तो उनके बीच का भाग क्या जीवप्रदेशों में स्पृष्ट होता है ? हाँ, गौतम ! वह स्पृष्ट होता है ।
भगवन् ! कोई पुरुष उन कछुए आदि के खण्डों के बीच के भाग को हाथ से, पैर से अंगुलि से, शलाका से, काष्ठ से या लकड़ी के छोटे-से टुकड़े से थोड़ा स्पर्श करे, विशेष स्पर्श करे, थोड़ा-, या विशेष खींचे, या किसी तीक्ष्ण से थोड़ा छेदे, अथवा विशेष छेदे, अथवा अग्निकाय से उसे जलाए तो क्या उन जीवप्रदेशों को थोड़ी या अधिक बाधा उत्पन्न कर पाता है, अथवा उसके किसी भी अवयव का छेद कर पाता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; क्योंकि उन जीवप्रदेशों पर शस्त्र (आदि) का प्रभाव नहीं होता ।
[३९९] भगवन् ! पृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ -रत्नप्रभापृथ्वी यावत् अधःसप्तमा पृथ्वी और ईषत्प्राग्भारा । भगवन् ! क्या यह रत्नप्रभापृथ्वी चरम है, अथवा अचरम ? यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का चरमपद । वैमानिक तक कहना । गौतम ! वे चरम भी हैं और अचरम भी हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
| शतक-८ उद्देशक-४ । [४००] राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने पूछा- भगवन् ! क्रियाएँ कितनी हैं ?