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भगवती-७/-/९/३७५
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कर दिया । फिर दर्भ के संस्तारक को बिछा कर उस पर बैठा । दर्भसंस्तारक पर बैठकर पूर्वदिशा की ओर मुख करके यावत् दोनों हाथ जोड़ कर यों बोला-'भगवन् ! मेरे प्रिय बालमित्र वरुण नागनतृक के जो शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास हैं, वे सब मेरे भी हों, इस प्रकार कह कर उसने कवच खोला । शरीर में लगे हुए बाण को बाहर निकाला । वह भी क्रमशः समाधियुक्त होकर कालधर्म को प्राप्त हुआ ।
तदनन्तर उस वरुण नागनप्तृक को कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर निकटवर्ती वाणव्यन्तर देवों ने उस पर सुगन्धितजल की वृष्टि की, पांच वर्ण के फूल बरसाए और दिव्यगीत एवं गन्धर्व-निनाद भी किया । तब से उस वरुण नागनप्तृक की उस दिव्य देवकृद्धि, दिव्य देवद्युति
और दिव्य देवप्रभाव को सुन कर और जान कर बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे-'देवानुप्रियो ! संग्राम करते हुए जो बहुत-से मनुष्य मरते हैं, यावत् वे देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।'
[३७६] भगवन् ! वरुण नागनप्तृक कालधर्म पा कर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? गौतम ! वह सौधर्मकल्प में अरुणाभ नामक विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है । उस देवलोक में कतिपय देवों की चार पल्योयम की स्थिति कही गई है । अतः वहाँ वरुण-देव की स्थिति भी चार पल्योपम की है । भगवन् ! वह वरुण देव उस देवलोक से आयु-क्षय होने पर, भव-क्षय होने पर तथा स्थिति-क्षय होने पर कहाँ जायेगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा ।
भगवन् ! वरुण नागनप्तृक का प्रिय बालमित्र कालधर्म पा कर कहाँ गया ?, कहाँ उत्पन्न हुआ ? गौतम ! वह सुकुल में उत्पन्न हुआ है । भगवन् ! वह वहाँ से काल करके कहाँ जायेगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! वह भी महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
| शतक-७ उद्देशक-१० | [३७७] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था यावत् (एक) पृथ्वीशिलापट्टक था । उस गुणशीलक चैत्य के पास थोड़ी दूर पर बहुत से अन्यतीर्थी रहते थे, यथा-कालोदायी, शैलोदाई, शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति ।
किसी समय सब अन्यतीर्थिक एक स्थान पर आए, एकत्रित हुए और सुखपूर्वक भलीभाँति बैठे । फिर उनमें परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप प्रारम्भ हुआ–'ऐसा (सुना) है कि श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों का निरूपण करते हैं, यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुदगलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । इनमें से चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र ‘अजीव-काय' बताते हैं । धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय । एक जीवास्तिकाय को श्रमण ज्ञातपुत्र ‘अरूपी' और जीवकाय बतलाते हैं । उन पांच अस्तिकायों में से चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र अरूपीकाय बतलाते हैं । धर्मास्तिकाय, यावत् जीवास्तिकाय । एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण ज्ञातपुत्र रूपीकाय और अजीवकाय कहते हैं । उनकी यह बात कैसे मानी जाए ?