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भगवती-६/-1८/३१५
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[३१६] भगवन् ! क्या लवणसमुद्र, उछलते हुए जल वाला है, सम जलवाला है, क्षुब्ध जलवाला है अथवा अक्षुब्ध जल वाला है ? गौतम ! लवणसमुद्र उच्छितोदक है, किन्तु प्रस्तृतोदक नहीं है; वह क्षुब्ध जल वाला है, किन्तु अक्षुब्ध जलवाला नहीं है । यहाँ से प्रारम्भ करके जीवाभिगम सूत्र अनुसार यावत् इस कारण, हे गौतम ! बाहर के (द्वीप-) समुद्र पूर्ण, पूर्णप्रमाण वाले, छलाछल भरे हए, छलकते हए और समभर घट के रूप में, तथा संस्थान से एक ही तरह के स्वरूप वाले, किन्तु विस्तार की अपेक्षा अनेक प्रकार के स्वरूप वाले हैं; द्विगुण-द्विगुण विस्तार वाले हैं; यावत् इस तिर्यक्लोक में असंख्येय द्वीप-समुद्र हैं । सबसे अन्त में 'स्वयम्भूरमणसमुद्र' है । इस प्रकार द्वीप और समुद्र कहे गए हैं ।
भगवन् ! द्वीप-समुद्रों के कितने नाम कहे गए हैं ? गौतम ! इस लोक में जितने भी शुभ नाम, शुभ रूप, शुभ रस, शुभ गन्ध और शुभ स्पर्श हैं, उतने ही नाम द्वीप-समुद्रों के कहे गए हैं । इस प्रकार सब द्वीप-समुद्र शुभ नाम वाले जानने चाहिए तथा उद्धार, परिणाम और सर्व जीवों का उत्पाद जानना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
| शतक-६ उद्देशक-९ [३१७] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म को बांधता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधता है ? गौतम सात प्रकृतियों को बांधता है, आठ प्रकार को बांधता है अथवा छह प्रकृतियों को बांधता है । यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का बंध-उद्देशक कहना चाहिए ।
[३१८] भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महानभाग देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्णवाले और एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! क्या वह देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करने में समर्थ है ? हाँ, गौतम ! समर्थ है । भगवन् ! क्या वह देव इहगत पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है अथवा तत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है या अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? गौतम ! वह देव यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता, वह वहाँ के पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, किन्तु अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता । इस प्रकार इस गम द्वारा विकुर्वणा के चार भंग कहने चाहिए एक वर्णवाला और एक आकार वाला, एक वर्णवाला और अनेक आकारवाला, अनेक वर्ण और एक आकार वाला तथा अनेक वर्णवाला और अनेक आकार वाला ।
भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महानुभागवाला देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना काले पुद्गल को नीले पुद्गल के रूप में और नीले पुद्गल को काले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; किन्तु बाहरी पुद्गलों को ग्रहण करके देव वैसा करने में समर्थ है । भगवन् ! वह देव इहगत, तत्रगत या अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा करने में समर्थ है ? गौतम ! वह इहगत और अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा नहीं कर सकता, किन्तु तत्र गत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा परिणत करने में समर्थ है । विशेष यह है कि यहाँ 'विकुर्वित करने में' के बदले] “परिणत करने में कहना चाहिए । इसी प्रकार काले पुद्गल को लाल पुद्गल के रूप में यावत् काले पुद्गल के साथ