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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
समर्थ नहीं है । इस विषय में प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार यह, यावत् ‘अलमत्थु' पाठ तक कहना चाहिए ।
_ [३६६] भगवन् ! क्या वास्तव में हाथी और कुन्थुए का जीव समान है ? हाँ, गौतम ! हाथी और कुन्थुए का जीव समान है । इस विषय में राजप्रश्नीयसूत्र में कहे अनुसार 'खुडिडयं वा महालियं वा' इस पाठ तक कहना चाहिए ।
[३६७] भगवन् ! नैरयिकों द्वारा जो पापकर्म किया गया है, किया जाता है और किया जायेगा, क्या वह सब दुःखरूप है और (उनके द्वारा) जिसकी निर्जरा की गई है, क्या वह सुख रूप है ? हाँ, गौतम ! नैरयिक द्वारा जो पापकर्म किया गया है, यावत् वह सब दुःखरूप है और (उनके द्वारा) जिन (पापकर्मों) की निर्जरा की गई है, वह सब सुखरूप है । इस प्रकार वैमानिकों पर्यन्त चौबीस दण्डकों को जान लेना चाहिए ।
[३६८] भगवन् ! संज्ञाएँ कितने प्रकार की कही गई हैं ? गौतम ! दस प्रकार की हैं । आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा । वैमानिकों पर्यन्त चौबीस दण्डकों में ये दस संज्ञाएँ पाई है।
नैरयिक जीव दस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हुए रहते हैं । वह इस प्रकारशीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, कण्डू, पराधीनता, ज्वर, दाह, भय और शोक ।
. [३६९] भगवन् ! क्या वास्तव में हाथी और कुंथुए के जीव को समान रूप में अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है ? हाँ, गौतम ! हाथी और कुंथुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है । भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि हाथी और कुंथुए के यावत् क्रिया समान लगती है ? गौतम ! अविरति की अपेक्षा समान लगती है ।
[३७०] भगवन् ! आधाकर्म का उपयोग करने वाला साधु क्या बांधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? गौतम ! इस विषय का सारा वर्णन प्रथम शतक के नौवें उद्देशक में कहे अनुसार-'पण्डित शाश्वत है और पण्डितत्व अशाश्वत है' यहाँ तक कहना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
| शतक-७ उद्देशक-९ | [३७१] भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? हां, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ है ।।
भगवन् ! वह असंवृत अनगार यहाँ (मनुष्य-लोक में) रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, या वहां रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, अथवा अन्यत्र रहे पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? गौतम ! वह यहाँ (मनुष्यलोक में) रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, किन्तु न तो वहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है और न ही अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ।
इस प्रकार एकवर्ण, एकरूप, एकवर्ण अनेकरूप, अनेकवर्ण एकरूप और अनेकवर्ण अनेकरूप, यों चौंभगी का कथन जिस प्रकार छठे शतक के नौंवें उद्देशक में किया गया है,