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भगवती-५/-/६/२५०
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प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है ।
__ आधाकर्म के आलापकद्वय के अनुसार ही क्रीतकृत, स्थापित रचितक, कान्तारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, वर्दलिकाभक्त, प्लानभक्त, शय्यातरपिण्ड, राजपिण्ड, इन सब दोषों से युक्त आहारादि के विपय में प्रत्येक के दो-दो आलापक कहने चाहिए | आधाकर्म अनवद्य है, इस प्रकार जो साधु बहुत-से मनुष्यों के बीच में कह कर, स्वयं ही उस आधाकर्म-आहारादि का सेवन करता है, यदि वह उस स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती, यावत् यदि वह उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है । आधाकर्मसम्बन्धी इस प्रकार के आलापकद्वय के समान क्रीतकृत से लेकर राजपिण्डदोष तक पूर्वोक्त प्रकार से प्रत्येक के दो-दो आलापक समझ लेने चाहिए ।
आधाकर्म अनवद्य है', इस प्रकार कह कर, जो साधु स्वयं परस्पर (भोजन करता है) दूसरे साधुओं को दिलाता है, किन्तु उस आधाकर्म दोष स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना काल करता है तो उसके अनाराधना तथा यावत् आलोचनादि करके काल करता है तो उसके आराधना होती है । इसी प्रकार क्रीतकृत से लेकर राजपिण्ड तक पूर्ववत् यावत् अनाराधना एवं आराधना जान लेनी चाहिए । 'आधाकर्म अनवद्य है', इस प्रकार जो साधु बहुत-से लोगों के बीच में प्ररूपण (प्रज्ञापन) करता है, उसके भी यावत् आराधना नहीं होती, तथा वह यावत् आलोचना-प्रतिक्रमण करके काल करता है, उसके आराधना होती है । इसी प्रकार क्रीतकृत से लेकर यावत् राजपिण्ड तक पूर्वोक्त प्रकार से अनाराधना होती है, तथा यावत् आराधना होती है ।
[२५१] भगवन् ! अपने विषय में गण को अप्लान (अखेद) भाव से स्वीकार करते (अर्थात्-सूत्रार्थ पढ़ाते) हुए तथा अप्लानभाव से उन्हें सहायता करते हुए आचार्य और उपाध्याय, कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, यावत सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ? गौतम ! कितने ही आचार्य-उपाध्याय उसी भव से सिद्ध होते हैं, कितने ही दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, किन्तु तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते ।
[२५२] भगवन् ! जो दूसरे पर सद्भूत का अपलाप और असद्भूत का आरोप करके असत्य मिथ्यादोषारोपण करता है, उसे किस प्रकार के कर्म बंधते हैं ? गौतम ! जो दूसरे पर सद्भूत का अपलाप और असदभूत का आरोपण करके मिथ्या दोष लगाता है, उसके उसी प्रकार के कर्म बंधते हैं । वह जिस योनि में जाता है, वहीं उन कर्मों को वेदता है और वेदन करने के पश्चात् उनकी निर्जरा करता है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
| शतक-५ उद्देशक-७ | [२५३] भगवन् ! क्या परमाणु पुद्गल कांपता है, विशेष रूप से कांपता है ? यावत् उस-उस भाव में परिणत होता है ? गौतम ! परमाणु पुद्गल कदाचित् कांपता है, विशेष कांपता है, यावत् उस-उस भाव में परिणत होता है; कदाचित् नहीं कांपता, यावत् उस-उस भाव में परिणत नहीं होता । भगवन् ! क्या द्विप्रदेशिक स्कन्ध कांपता है, विशेष कांपता है, यावत् उस-उस भाव में परिणत होता है ? हे गौतम ! कदाचित् कम्पित होता है, यावत्