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भगवती-५/-/९/२६५
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भगवन् ! असुरकुमारों के क्या उद्योत होता है, अथवा अन्धकार होता है ? गौतम ! असुरकुमारों के उद्योत होता है, अन्धकार नहीं होता । भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! असुरकुमारों के शुभ पुद्गल या शुभ परिणाम होते हैं, इस कारण से कहा जाता है कि उनके उद्योत होता है, अन्धकार नहीं होता । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देवों तक के लिए कहना चाहिए । जिस प्रकार नैरयिक जीवों के विषय में कथन किया, उसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर त्रीन्द्रिय जीवों तक के विषय में कहना चाहिए।
भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों के क्या उद्योत है अथवा अन्धकार है ? गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीवों के उद्योत भी है, अन्धकार भी है । भगवन् ! किस कारण से चतुरिन्द्रिय जीवों के उद्योत भी है, अन्धकार भी है ? गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीवों के शुभ और अशुभ (दोनों प्रकार के) पुद्गल होते हैं, तथा शुभ और अशुभ पुद्गल परिणाम होते हैं, इसलिए ऐसा कहा जाता है, कि उनके उद्योत भी है और अन्धकार भी है । इसी प्रकार यावत् मनुष्यों तक के लिए कहना चाहिए। जिस प्रकार असुरकुमारों के (उद्योत-अन्धकार) के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी कहना चाहिए ।
[२६६] भगवन् ! क्या वहाँ (नरकक्षेत्र में) रहे हुए नैरयिकों को इस प्रकार का प्रज्ञान होता है, जैसे कि- समय, आवलिका, यावत् उत्सर्पिणी काल (या) अवसर्पिणी काल ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! किस कारण से नरकस्थ नैरयिकों को काल का प्रज्ञान नहीं होता ? गौतम ! यहाँ (मनुष्यलोक में) समयादि का मान है, यहाँ उनका प्रमाण है, इसलिए यहाँ ऐसा प्रज्ञान होता है कि यह समय है, यावत् यह उत्सर्पिणीकाल है, (किन्तु नरक में न तो समयादि का मान है, न प्रमाण है और न ही प्रज्ञान है ।) इस कारण से कहा जाता है कि नरकस्थित नैरयिकों को इस प्रकार से यावत् उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी-काल का प्रज्ञान नहीं होता । जिस प्रकार नरकस्थित नैरयिकों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों तक कहना ।
__भगवन् ! क्या यहाँ (मनुष्यलोक में) रहे हुए मनुष्यों को इस प्रकार का प्रज्ञान होता है, कि समय (है), अथवा यावत् (यह) उत्सर्पिणीकाल (है) ? हाँ, गौतम ! होता है । भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है) ? गौतम ! यहाँ (मनुष्यलोक में) उनका (समयादि का) मान है, यहाँ उनका प्रमाण है, इसलिए यहाँ उनको उनका (समयादि का) इस प्रकार से प्रज्ञान होता है, यथा-यह समय है, या यावत् यह उत्सर्पिणीकाल है । इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यहाँ रहे हुए मनुष्यों को समयादि का प्रज्ञान होता है ।
जिस प्रकार नैरयिक जीवों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के (समयादिप्रज्ञान के) विषय में कहना चाहिए ।
[२६७] उस काल और उस समय में पापित्य स्थविर भगवन्त, जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आए । वहाँ आ कर वे श्रमण भगवान् महावीर से अदूरसामन्त खड़े रह कर इस प्रकार पूछने लगे-भगवन् ! असंख्य लोक में क्या अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे; तथा नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ? अथवा परिमित रात्रिदिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे; तथा नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ? हाँ, आर्यो ! असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं, यावत्