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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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उपर्युक्त रूप सारा पाठ कहना चाहिए । भगवन् ! किस कारण से असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न यावत् नष्ट होंगे ? हे आर्यो ! यह निश्चित है कि आपके (गुरुस्वरूप) पुरुषादानीय, अर्हत् पार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत कहा है । इसी प्रकार लोक को अनादि, अनन्त, परिमित, अलोक से परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, और ऊपर विशाल, तथा नीचे पल्यंकाकार, बीच में उत्तम वज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकार कहा है । उस प्रकार के शाश्वत, अनादि, अनन्त, परित्त, परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, तथा नीचे पल्यंकाकार, मध्य में उत्तमवज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकारसंस्थित लोक में अनन्त जीवघन उत्पन्न हो-हो कर नष्ट होते हैं और परित जीवघन भी उत्पन्न हो-हो कर विनष्ट होते हैं । इसीलिए ही तो यह लोक भूत है, उत्पन्न है, विगत है, परिणत है । यह, अजीवों से लोकित-निश्चित होता है, तथा यह (भूत आदि धर्मवाला लोक) विशेषरूप से लोकितनिश्चित होता है । 'जो (प्रमाण से) लोकित-अवलोकित होता है, वही लोक है न ?' (पावपित्य स्थविर-) हाँ, भगवन् ! (वही लोक है ।) इसी कारण से, हे आर्यो ! ऐसा कहा जाता है कि असंख्य लोक में इत्यादि सब पूर्ववत् कहना । तब से वे पावपित्य स्थविरभगवन्त श्रमण भगवान महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जानने लगे ।
इसके पश्चात् उन (पावपित्य) स्थविर भगवन्तों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार किया । वे बोले-'भगवन् चातुर्याम धर्म के बदले हम आपके समीप प्रतिक्रमण सहित पंचमहाव्रतरूप धर्म को स्वीकार करके विचरण करना चाहते हैं । भगवन्- ‘देवानुप्रियो ! जिस प्रकार आपको सुख हो, वैसा करो, किन्तु प्रतिबन्ध मत करो ।' इसके पश्चात् वे पावापत्य स्थविर भगवन्त...यावत् अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वास के साथ सिद्ध हुए यावत् सर्वदुःखों से प्रहीण हुए और कई (स्थविर) देवलोकों में देवरूप में उत्पन्न हुए ।
[२६८] भगवन् ! देवगण कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! चार प्रकार के भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक भवनवासी दस प्रकार के हैं । वाणव्यन्तर आठ प्रकार के हैं, ज्योतिष्क पांच प्रकार के हैं और वैमानिक दो प्रकार के हैं।
[२६९] राजगृह नगर क्या है ? दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार क्यों होता है ? समय आदि काल का ज्ञान किन जीवों को होता है, किनको नहीं ? रात्रि-दिवस के विषय में पार्श्वजिनशिष्यों के प्रश्न और देवलोकविषयक प्रश्न; इतने विषय इस उद्देशक में है । [२७०] हे भगवन् यह इसी प्रकार है । इसी प्रकार है ।
| शतक-५ उद्देशक-१० ।। [२७१] उस काल और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी । पंचम शतक को प्रथम उद्देशक समान यह उद्देशक भी कहना । विशेष यह कि यहाँ 'चन्द्रमा' कहना। शतक-५ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(शतक-६) [२७२] १. वेदना, २. आहार, ३. महाश्रव, ४. सप्रदेश, ५. तमस्काय, ६. भव्य, ७. शाली, ८. पृथ्वी, ९. कर्म और १०. अन्यपूथिक-वक्तव्यता; ये दस उद्देशक हैं ।