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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
शतक-४
[२०७] इस चौथे शतक में दस उद्देशक हैं । इनमें से प्रथम चार उद्देशकों में विमान - सन्बन्धी कथन किया गया है । पाँचवें से लेकर आठवें उद्देशक तक राजधानियों का वर्णन है । नौंवें उद्देशक में नैरयिकों का और दसवें उद्देशक में लेश्या के सम्बन्ध में निरूपण है । शतक - ४ उद्देशक - १ से ४
[२०८] राजगृह नगर में, यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहा- 'भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के कितने लोकपाल कहे गए हैं ? हे गौतम ! उसके चार लोकपाल कहे गए हैं । वे इस प्रकार हैं- सोम, यम, वैश्रमण और वरुण ।
भगवन् ! इन लोकपालों के कितने विमान कहे गए हैं ?' गौतम ! इनके चार विमान हैं; वे इस प्रकार हैं- सुमन, सर्वतोभद, वल्गु और सुवल्गु ।
भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज का 'सुमन' नामक महाविमान कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर - पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल से, यावत् ईशान नामक कल्प कहा है । उसमें यावत् पांच अवतंसक कहे हैं, वे इस प्रकार हैं- अंकावतंसक, स्फटिकावतंसक, रत्नावतंसक और जातरूपावतंसक; इन चारों अवतंसकों के मध्य में ईशानावतंसक है । उस ईशानावतंसक नामक महाविमान से पूर्व में तिरछे असंख्येय हजार योजन आगे जाने पर देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज का 'सुमन' नामक महाविमान है । उसकी लम्बाई और चौड़ाई साढ़े बारह लाख योजन है । इत्यादि तृतीय शतक में कथित शक्रेन्द्र ( के लोकपाल सोम के महाविमान) के समान ईशानेन्द्र (के लोकपाल सोम के महाविमान) के सम्बन्ध में यावत् - अर्चनिका समाप्तिपर्यन्त कहना ।
इस प्रकार चारों लोकपालों में से प्रत्येक के विमान की वक्तव्यता पूरी हो वहाँ एकएक उद्देशक समझना । चारों विमानों की वक्तव्यता में चार उद्देशक पूर्ण हुए समझना । विशेष यह है कि इनकी स्थिति में अन्तर है ।
[२०९] आदि के दो-सोम और यम लोकपाल की स्थिति (आयु) त्रिभागन्यून दोदो पल्योपम की है, वैश्रमण की स्थिति दो पल्योपम की है और वरुण की स्थिति त्रिभागसहित दो पल्योपम की है । अपत्यरूप देवों की स्थिति एक पल्योपम की है ।
शतक - ४ उद्देशक ५ से ८
[२१०] चारों लोकपालों की राजधानियों के चार उद्देशक कहने चाहिए । यावत् वरुण महाराज इतनी महाऋद्धि वाले हैं ।
शतक - ४ उद्देशक - ९
[२११] भगवन् ! जो नैरयिक है, क्या वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है, या जो अनैरयिक है, वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ( हे गौतम !) प्रज्ञापनासूत्र में कथित लेश्यापद का तृतीय उद्देशक यहाँ कहना चाहिए, और वह यावत् ज्ञानों के वर्णन तक कहना चाहिए ।
शतक - ४ उद्देशक - १०
[२१२] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या का संयोग पा कर तद्रुप और तद्वर्ण