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भगवती-३/-/२/१७५
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विशेषाधिक है ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र एक समय में सबसे कम क्षेत्र नीचे जाता है, तिरछा उससे संख्येय भाग जाता है और ऊपर भी संख्येय भाग जाता है । भगवन् ! असुरेन्द्र
असुरराज चमर के ऊर्ध्वगमन-विषय, अधोगमन विषय और तिर्यगमनविषय में से कौन-सा विषय किन-किन से अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर, एक समय में सबसे कम क्षेत्र ऊपर जाता है; तिरछा, उससे संख्येय भाग अधिक (क्षेत्र)
और नीचे उससे भी संख्येय भाग अधिक जाता है । वज्र-सम्बन्धी गमन का विषय (क्षेत्र), जैसे देवेन्द्र शक्र का कहा है, उसी तरह जानना चाहिए । परन्तु विशेषता यह है कि गति का विषय (क्षेत्र) विशेषाधिक कहना चाहिए । भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र का नीचे जाने का काल और ऊपर जाने का काल, इन दोनों कालों में कौन-सा काल, किस काल से अल्प है, बहुत है, तुल्य है अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र का ऊपर जाने का काल सबसे थोड़ा है, और नीचे जाने का काल उससे संख्येयगुणा अधिक है । चमरेन्द्र का गमनविषयक कथन भी शक्रेन्द्र के समान ही जानना चाहिए; किन्तु इतनी विशेषता है कि चमरेन्द्र का नीचे जाने का काल सबसे थोड़ा है, ऊपर जाने का काल उससे संख्येयगुणा अधिक है । वज्र (के गमन के विषय में) पृच्छा की (तो भगवान् ने कहा-) गौतम ! वज्र का ऊपर जाने का काल सबसे थोड़ा है, नीचे जाने का काल उससे विशेषाधिक है ।
__ भगवन् ! यह वज्र, वज्राधिपति-इन्द्र, और असुरेन्द्र असुरराज चमर, इन सब का नीचे जाने का काल और ऊपर जाने का काल; इन दोनों कालों में से कौन-सा काल किससे अल्प, बहुत (अधिक), तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! शक्रन्द्र का ऊपर जाने का काल और चमरेन्द्र का नीचे जाने का काल, ये दोनों तुल्य हैं और सबसे कम है । शक्रेन्द्र का नीचे जाने का काल और वज्र का ऊपर जाने का काल, ये दोनों काल तुल्य हैं और (पूर्वोक्त काल से) संख्येयगुणा अधिक है । (इसी तरह) चमरेन्द्र का ऊपर जाने का काल और वज्र का नीचे जाने का काल, ये दोनों काल तुल्य हैं और (पूर्वोक्त काल से) विशेषाधिक हैं ।
[१७६] इसके पश्चात् वज्र-(प्रहार) के भय से विमुक्त बना हुआ, देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान् अपमान से अपमानित हुआ, चिन्ता और शोक के समुद्र में प्रविष्ट असुरेन्द्र असुरराज चमर, मानसिक संकल्प नष्ट हो जाने से मुख को हथेली पर रखे, दृष्टि को भूमि में गड़ाए हुए आर्तध्यान करता हुआ, चमरचंचा नामक राजधानी में सुधर्मासभा में, चमर नामक सिंहासन पर विचार करने लगा । . उस समय नष्ट मानसिक संकल्प वाले यावत् आर्तध्यान करते हुए असुरेन्द्र असुरराज चमर को, सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों ने देखा तो वे हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय ! आज आपका मानसिक संकल्प नष्ट हो गया हो, यावत् क्यों चिन्ता में डूबे हैं ?' इस पर असुरेन्द्र असुरराज चमर ने, उन सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! मैंने स्वयमेव श्रमण भगवान् महावीर का आश्रय ले कर, देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से नष्टभ्रष्ट करने का मनोगत संकल्प किया था । उससे अत्यन्त कुपित हो कर मुझे मारने के लिए शक्रेन्द्र ने मुझ पर वज्र फैका था । परन्तु देवानुप्रियो ! भला हो, श्रमण भगवान् महावीर का, जिनक प्रभाव से मैं, पीड़ा से रहित तथा परिताप-रहित रहा; और सुखशान्ति से युक्त हो कर यहाँ आ पाया हूँ, यहाँ समवसृत हुआ हूँ, यहाँ पहुँचा हूँ और आज