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भगवती-३/-/३/१७८
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भगवन् ! कायिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? मण्डितपुत्र ! कायिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है । वह इस प्रकार अनुपरतकाय-क्रिया और दुष्प्रयुक्तकाय-क्रिया ।
__ भगवन् ! आधिकरणिकी क्रिया कितने प्रकार की है ? मण्डितपुत्र ! दो प्रकार की है। -संयोजनाधिकरण-क्रिया और निर्वर्तनाधिकरण-क्रिया ।।
भगवन् ! प्राद्वेषिकी क्रिया कितने प्रकार की है ? मण्डितपुत्र ! प्राद्वेषिकी क्रिया दो प्रकार की है । जीवप्राद्वेषिकी क्रिया और अजीव-प्राद्वेषिकी क्रिया ।
भगवन् ! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? मण्डितपुत्र ! पारितापनिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है । स्वहस्तपारितापनिकी और परहस्तपारितापनिकी ।
भगवन् ! प्राणातिपात-क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? मण्डितपुत्र ! प्राणातिपातक्रिया दो प्रकार की स्वहस्त-प्राणातिपात-क्रिया और परहस्त-प्राणातिपात-क्रिया
[१७९] भगवन् ! पहले क्रिया होती है, और पीछे वेदना होती है ? अथवा पहले वेदना होती है, पीछे क्रिया होती है ? मण्डितपुत्र ! पहले क्रिया होती है, बाद में वेदना होती है; परन्तु पहले वेदना हो और पीछे क्रिया हो, ऐसा नहीं होता ।
[१८०] भगवन् ! क्या श्रमण-निर्ग्रन्थों के (भी) क्रिया होती (लगती) है ? हाँ, होती है । भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थों के क्रिया कैसे हो जाती है ? मण्डितपुत्र ! प्रमाद के कारण और योग के निमित्त से इन्हीं दो कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थों को क्रिया होती (लगती) है ।
[१८१] भगवन् ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप में कांपता है, विविध रूप में कांपता है, चलता है, स्पन्दन क्रिया करता है, घट्टित होता (घूमता) है, क्षुब्ध होता है, उदीरित होता या करता है; और उन-उन भावों में परिणत होता है ? हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा समित-(परिमित) रूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है । भगवन् ! जब तक जीव समित-परिमत रूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत (परिवर्तित) होता है, तब तक क्या उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया होती है ? मण्डितपुत्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? हे मण्डितपुत्र ! जीव जब तक सदा समित रूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह (जीव) आरम्भ करता है, संरम्भ में रहता है, समारम्भ करता है; आरम्भ में रहता है, संरम्भ में रहता है, और समारम्भ में रहता है । आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ करता हुआ तथा आरम्भ में, संरम्भ में, और समारम्भ में, प्रवर्त्तमान जीव, बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुँचाने में, शोक कराने में, झुराने में, रुलाने अथवा आँसू गिरवाने में, पिटवाने में, और परिताप देने में प्रवृत्त होता है । इसलिए हे मण्डितपुत्र ! ऐसा कहा जाता है कि जब तक जीव सदा समितरूप से कम्पित होता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह जीव, अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं कर सकता ।
भगवन् ! जीव, सदैव समितरूप से ही कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता ? हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा के लिए समितरूप से ही कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता । भगवन् ! जब वह जीव सदा के लिए समितरूप से कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता; तब क्या उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं हो जाती ? हाँ, हो जाती है ।