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भगवती-३/-/१/१६६ देवेन्द्र देवराज ईशान ! (यहाँ), दोनों ओर से सम्बोधित करके वे एक दूसरे के कृत्यों और करणीयों को अनुभव करते हुए विचरते हैं ।
(भगवन् ! जब उन दोनों इन्द्रों में परस्पर विवाद उत्पन्न हो जाता है;) तब वे क्या करते हैं ? गौतम ! वे दोनों, देवेन्द्र देवराज सनत्कुमारेन्द्र का मन में स्मरण करते हैं । देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र द्वारा स्मरण करने पर शीघ्र ही सनत्कुमारेन्द्र देवराज, शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र के निकट प्रकट होता है । वह जो भी कहता है, (उसे ये दोनों इन्द्र मान्य करते हैं ।) ये दोनों इन्द्र उसकी आज्ञा, सेवा, आदेश और निर्देश में रहते हैं ।
[१६७] हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार क्या भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक है ?; सम्यग्दृष्टि है, या मिथ्यादृष्टि है ? परित्त संसारी है या अनन्त संसारी ?; सुलभबोधि है, या दुर्लभबोधि ?; आराधक है, अथवा विराधक ? चरम है अथवा अचरम ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं; इसी तरह वह सम्यग्दृष्टि है, परित्तसंसारी है, सुलभबोधि है, आराधक है, चरम है, प्रशस्त पद ग्रहण करने चाहिए । भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है)? गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहुत-से श्रमणी, बहुतसी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं का हितकामी, सुखकामी, पथ्यकामी, अनुकम्पिक, निश्रेयसिक है । वह उनका हित, सुख और निःश्रेयस् का कामी है । इसी कारण, गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र भवसिद्धिक है, यावत् (चरम है, किन्तु) अचरम नहीं ।
भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! (उत्कृष्ट) सात सागरोपम की है । भगवन् ! वह (सनत्कुमारेन्द्र) उस देवलोक से आयु क्षय होने के बाद, यावत् कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र उस देवलोक से च्यवकर महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) में, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।'
[१६८] तिष्यक श्रमण का तप छट्ठ-छ8 था और उसका अनशन एक मास का था । कुरुदत्तपुत्र श्रमण का तप अट्ठम-अट्ठम का था और उसका अनशन था-अर्द्ध मासिक । तिष्यक श्रमण की दीक्षापर्याय आठ वर्ष की थी, और कुरुदत्तपुत्रश्रमण की थी-छह मास की।
[१६९] इसके अतिरिक्त दो इन्द्रों के विमानों की ऊँचाई, एक इन्द्र का दूसरे के पास आगमन परस्पर प्रेक्षण, उनका आलाप-संलाप, उनका कार्य, उनमें विवादोत्पत्ति तथा उनका निपटारा, तथा सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता आदि विषयों का निरूपण इस उद्देशक में है ।
| शतक-३ उद्देशक-२ [१७०] उस काल, उस समय में राजगृह नाम का नगर था । यावत् भगवान् वहाँ पधारे और परिषद् पर्युपासना करने लगी । उस काल, उस समय में चौसठ हजार सामानिक देवों से परिवृत और चमरचंचा नामक राजधानी में, सुधर्मासभा में चमरनामक सिंहासन पर बैठे असुरेन्द्र असुरराज चमर ने (राजगृह में विराजमान भगवान् को अवधिज्ञान से देखा); यावत् नाट्यविधि दिखला कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस लौट गया ।
'हे भगवन् !' यों कह कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन