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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
सन्निवेश में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय से भिक्षा-विधि से भिक्षाचरी करने के लिए घूमा । भिक्षाटन करते हुए उसने इस प्रकार का विचार किया मेरे भिक्षापात्र के पहले खाने में जो कुछ भिक्षा पड़ेगी उसे मार्ग में मिलने वाले पथिकों को दे देना है, मेरे (पात्र के) दूसरे खाने में जो कुछ (खाद्यवस्तु) प्राप्त होगी, वह मुझे कौओं और कुत्तों को दे देनी है, जो (भोज्यपदार्थ) मेरे तीसरे खाने में आएगा, वह मछलियों और कछुओं को दे देना है और चौथे खाने में जो भिक्षा प्राप्त होगी, वह स्वयं आहार करता है । इस प्रकार भलीभांति विचार करके कल (दूसरे दिन) रात्रि व्यतीत होने पर प्रभातकालीन प्रकाश होते ही यावत् वह दीक्षित हो गया, काष्ठपात्र के चौथे खाने में जो भोजन पड़ता है, उसका आहार स्वयं करता है ।।
तदनन्तर पूरण बालतपस्वी उस उदार, विपुल, प्रदत्त और प्रगृहीत बालतपश्चरण के कारण शुष्क एवं रूक्ष हो गया । यहाँ बीच का सारा वर्णन तामलीतापस की तरह (पूर्ववत्) यावत् वह भी 'बेभेल' सन्निवेश के बीचोंबीच होकर निकला । उसने पादुका और कुण्डी आदि उपकरणों को तथा चार खानों वाले काष्ठपात्र को एकान्त प्रदेश में छोड दिया । फिर बेभेल सन्निवेश के अग्निकोण में अर्द्धनिर्वर्तनिक मण्डल रेखा खींच कर बनाया अथवा प्रतिलेखितप्रमार्जित किया । यों मण्डल बना कर उसने संलेखना की जूषणा (आराधना) से अपनी आत्मा को सेवित किया । फिर यावज्जीवन आहार-पानी का प्रत्याख्यान करके उस पूरण बालतपस्वी ने पादपोपगमन अनशन (संथारा) स्वीकार किया ।
हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं छद्मस्थ अवस्था में था; मेरा दीक्षापर्याय ग्यारह वर्ष का था । उस समय मैं निरन्तर छट्ठ-छ? तप करता हुआ, संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूर्वानुपूर्वी से विचरण करता हुआ, ग्रामानुग्राम घूमता हुआ, जहाँ सुंसुमारपुर नगर था, और जहाँ असोकवनषण्ड नामक उद्यान था, वहाँ श्रेष्ठ अशोक के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक के पास आया । मैंने उस समय अशोकतरु के नीचे स्थित पृथ्वीशिलापट्टक पर अट्ठमभक्त तप ग्रहण किया । मैंने दोनों पैरों को परस्पर इकट्ठा कर लिया । दोनों हाथों को नीचे की ओर लटकाए हुए सिर्फ एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर कर, निर्निमेषनेत्र शरीर के अग्रभाग को कुछ झुका कर, यथावस्थित गात्रों से एवं समस्त इन्द्रियों को गुप्त करके एकरात्रिकी महा (भिक्षु) प्रतिमा को अंगीकार करके कायोत्सर्ग किया । उस काल और उस समय में चमरचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहित रहित थी । (इधर) पूरण नामक बालतपस्वी पूरे बारह वर्ष तक (दानामा) प्रव्रज्या पर्याय का पालन करके, एकमासिक संल्लेखना की आराधना से अपनी आत्मा को सेवित करके, साठ भक्त अनशन रख कर, मृत्यु के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके चमरचंचा राजधानी की उपपातसभा में यावत् इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ । उस समय तत्काल उत्पन्न हुआ असुरेन्द्र असुरराज चमर पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्ति भाव को प्राप्त हुआ । वे पांच पर्याप्तियाँ इस प्रकार हैं-आहारपर्याप्ति से यावत् भाषामनःपर्याप्ति तक ।
___जब असुरेन्द्र असुरराज चमर पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हो गया, तब उसने स्वाभाविक रूप से ऊपर सौधर्मकल्प तक अवधिज्ञान का उपयोग किया । वहाँ उसने देवेन्द्र देवराज, मघवा, पाकशासन, शतऋतु, सहस्त्राक्ष, वस्त्रापाणि, पुरन्दर शक्र को यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रकाशित करते हुए देखा । सौधर्मकल्प में सौधर्मावतंसक विमान में शक्र नामक सिंहासन पर बैठकर, यावत् दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करते हुए देखा । इसे देखकर