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भगवती-३/-/२/१७२
चमरेन्द्र के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, प्रार्थित एवं मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ कि अरे ! कौन यह अप्रार्थित-प्रार्थक, दूर तक निकृष्ट लक्षणवाला तथा लज्जा और शोभा से रहित, हीनपुण्या चतुर्दशी को जन्मा हुआ है, जो मुझे इस प्रकार की इस दिव्य देव-कृद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव लब्ध, प्राप्त और अभिमुख समानीत होने पर भी मेरे ऊपर उत्सुकता से रहित हो कर दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचर रहा है ? इस प्रकार का आत्मस्फुरण करके चमरेन्द्र ने अपनी सामानिकपरिषद् में उत्पन्न देवों को बुलाया और उनसे कहा-'हे देवानुप्रियो ! यह बताओ कि यह कौन अनिष्ट-यावत् दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है ?
असुरेन्द्र असुरराज चमर द्वारा सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहे जाने पर वे चित्त में अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुए । यावत् हृदय से हृत-प्रभावित होकर उनका हृदय खिल उठा । दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को एकत्रित करके शिरसावर्तसहित मस्तक पर अंजलि करके उन्होंने चमरेन्द्र को जय-विजय शब्दों से बधाई दी । फिर वे इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय ! यह तो देवेन्द्र देवराज शक्र है, जो यावत् दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है !' तत्पश्चात् उन सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस बात को सुनकर मन में अवधारण करके वह असुरेन्द्र असुरराज चमर शीघ्र ही क्रुद्ध, रुष्ट, कुपित एवं चण्ड-रौद्र आकृतियुक्त हुआ, और क्रोधावेश में आकर बड़बड़ाने लगा । फिर उसने सामानिकपरिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहा-“अरे ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र कोई दूसरा है, और यह असुरेन्द्र असुरराज चमर कोई दूसरा है ! देवेन्द्र देवराज शक्र तो महाकृद्धि वाला है, जबकि असुरेन्द्र असुरराज चमर अल्पकृद्धि वाला ही है, अतः हे देवानुप्रियो ! मैं चाहता हूँ कि मैं स्वयमेव उस देवेन्द्र देवराज शक्र को उसके स्वरूप से भ्रष्ट कर दूँ ।' यों कह कर वह चमरेन्द्र (कोपवश) गर्म हो गया, गर्मागर्म हो उठा ।
इसके पश्चात् उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया । अवधिज्ञान के प्रयोग से उसने मुझे देखा । मुझे देख कर चमरेन्द्र को इस प्रकार आन्तरिक स्फुरणा यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, सुसुमारपुर नगर में, अशोकवनषण्ड नामक उद्यान में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक पर अट्ठमभत्त तप स्वीकार कर एकरात्रिकी महाप्रतिमा अंगीकार करके स्थित हैं । अतः मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि मैं श्रमण भगवान् महावीर के आश्रय से देवेन्द्र देवराज शक्र को स्वयमेव श्रीभ्रष्ट करूं ।' वह चमरेन्द्र अपनी शय्या से उठा और उठकर उसने देवदूष्य वस्त्र पहना । फिर, उपपातसभा के पूर्वीद्वार से होकर निकला । और जहाँ सुधर्मासभा थी, तथा जहाँ चतुष्पाल नामक शस्त्रभण्डार था, वहाँ आया । एक परिघरत्न उठाया । फिर वह किसी को साथ लिये बिना अकेला ही उस परिघरत्न को लेकर अत्यन्त रोषाविष्ट होता हुआ चमरचंचा राजधानी के बीचोंबीच होकर निकला और तिगिच्छकूट नामक उत्पातपर्वत के निकट आया । वहाँ उसने वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होकर संख्येय योजनपर्यन्त का उत्तरक्रियरूप बनाया । फिर वह उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से यावत् जहाँ पृथ्वीशिलापट्टक था, वहाँ मेरे पास आया । मेरे पास उसने दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की, मुझे वन्दन-नमस्कार किया
और बोला-"भगवन् ! मैं आपके आश्रय से स्वयमेव देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा 37