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भगवती-२/-/१०/१४२
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अरूपी हैं, अजीव है, शाश्वत है, अवस्थित लोक (प्रमाण) द्रव्य है । संक्षेप में, धर्मास्तिकाय पांच प्रकार का कहा गया है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से और गुण से । धर्मास्तिकाय द्रव्य से एक द्रव्य है, क्षेत्र से लोकप्रमाण है; काल की अपेक्षा कभी नहीं था, ऐसा नहीं; कभी नहीं है, ऐसा नहीं; और कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं; किन्तु वह था, है और रहेगा, यावत् वह नित्य है । भाव की अपेक्षा वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित है । गुण की अपेक्षा धर्मास्तिकाय गतिगुणवाला है ।
जिस तरह धर्मास्तिकाय का कथन किया गया है, उसी तरह अधर्मास्तिकाय के विषय में भी कहना विशेष यह कि अधर्मास्तिकाय गुण की अपेक्षा स्थितिगुण वाला है ।
आकाशास्तिकाय के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि क्षेत्र की अपेक्षा आकाशास्तिकाय लोकालोक-प्रमाण है और गुण की अपेक्षा अवगाहना गुण वाला है।
भगवन् ! जीवास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? गौतम ! जीवास्तिकाय वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरहित है वह अरूपी है, जीव है, शाश्वत है, अवस्थित लोकद्रव्य है । संक्षेप में, जीवास्तिकाय के पांच प्रकार कहे गए हैं । वह इस प्रकारद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा जीवास्तिकाय । द्रव्य की अपेक्षा-जीवास्तिकाय अनन्त जीवद्रव्यरूप है । क्षेत्र की अपेक्षा-लोक-प्रमाण है । काल की अपेक्षा-वह कभी नहीं था, ऐसा नहीं, यावत् वह नित्य है । भाव की अपेक्षा-जीवास्तिकाय में वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं और स्पर्श नहीं है । गुण की अपेक्षा जीवास्तिकाय उपयोगगुण वाला है ।
भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? गौतम ! पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श हैं । वह रूपी है, अजीव है, शाश्वत और अवस्थित लोकद्रव्य है । संक्षेप में उसके पांच प्रकार कहे गए हैं; यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से और गुण से । द्रव्य की अपेक्षा-पुद्गलास्तिकाय अनन्तद्रव्यरूप है; क्षेत्र की अपेक्षा-पुद्गलास्तिकाय लोक-प्रमाण है, काल की अपेक्षा-वह कभी नहीं था ऐसा नहीं, यावत् नित्य है । भाव की अपेक्षा-वह वर्ण वाला, गन्ध वाला, रस वाला और स्पर्श वाला है । गुण की अपेक्षा-वह ग्रहण गुण वाला है ।
[१४३] भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ।
भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों, तीन प्रदेशों, चार प्रदेशों, पांच प्रदेशों, छह प्रदेशों, सात प्रदेशों, आठ प्रदेशों, नौ प्रदेशों, दस प्रदेशों, संख्यात प्रदेशों तथा असंख्येय प्रदेशों को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! एक प्रदेश से कम धर्मास्तिकाय को क्या 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं; भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को यावत् एक प्रदेश कम हो, वहाँ तक उसे धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता ? गौतम ! चक्र का खण्ड चक्र कहलाता है या सम्पूर्ण चक्र चक्र कहलाता है ? (गौतम-) भगवन् ! चक्र का खण्ड चक्र नहीं कहलाता, किन्तु सम्पूर्ण चक्र, चक्र कहलाता है । (भगवान्-) इस प्रकार छत्र, चर्म, दण्ड, वस्त्र, शस्त्र और मोदक के विषय में भी जानना चाहिए । इसी कारण से,