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भगवती-२/-/१/११६
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कृतादि स्थविरों के साथ शनैःशनैः विपुलाचन पर चढ़े । वहाँ मेघ-समूह के समान काले, देवों के उतरने योग्य स्थानरूप एक पृथ्वी-शिलापट्ट की प्रतिलेखना की तथा उच्चार-प्रस्त्रवणादि परिष्ठापनभूमि की प्रतिलेखना की । ऐसा करके उस पृथ्वीशिलापट्ट पर डाभ का संथारा बिछाकर, पूर्वदिशा को ओर मुख करके, पर्यकासन से बैठकर, दसों नख सहित दोनों हाथों को मिलाकर मस्तक पर रखकर, दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले-'अरिहन्त भगवन्तों को, यावत् जो मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं, उन्हें नमस्कार हो । तथा अविचल शाश्वत सिद्ध स्थान को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार हो । तत्पश्चात् कहा
'वहाँ रहे हुए भगवान् महावीर को यहाँ रहा हुआ मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ विराजमान श्रमण भगवान् महावीर यहां पर रहे हुए मुझ को देखें । ऐसा कहकर भगवान् को वन्दनानमस्कार करके वे बोले-'मैंने पहले भी श्रमण भगवान महावीर के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात का त्याग किया था, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापों का त्याग किया था । इस समय भी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारह ही पापों का त्याग करता हूँ । और यावज्जीवन के लिए अशन, पान, खादिम और स्वादिम, आहार का त्याग करता हूँ । तथा यह मेरा शरीर, जो कि मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय है, यावत् जिसकी मैंने बाधा-पीड़ा, रोग, आतंक, परीषह और उपसर्ग आदि से रक्षा की है, ऐसे शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक व्युत्सर्ग करता हूँ, यों कहकर संलेखना संथारा करके, भक्त-पान का सर्वथा त्याग करके पादपोपगमन अनशन करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरण करने लगे । स्कन्दक अनगार, श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन पूरे बारह वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी आत्मा को संलिखित करके साठ भक्त का त्यागरूप अनशन करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त करके क्रमशः कालधर्म को प्राप्त हए ।
[११७] तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने स्कन्दक अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर उनके परिनिर्वाण सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया । फिर उनके पात्र, वस्त्र आदि उपकरणों को लेकर वे विपुलगिरि से शनैः शनैः नीचे उतरे । उतरकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए । भगवान् को वन्दना-नमस्कार करके उन स्थविर मुनियों ने इस प्रकार कहा हे भगवन् ! आप देवानुप्रिय के शिष्य स्कन्दक अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, प्रकृति के विनीत, स्वभाव से उपशान्त, अल्पक्रोध-मान-माया-लोभ वाले, कोमलता और नम्रता से युक्त, इन्द्रियों को वश में करने वाले, भद्र और विनीत थे, वे आपकी आज्ञा लेकर स्वयमेव पंचमहाव्रतों का आरोपण करके, साधुसाध्वियों से क्षमापना करके, हमारे साथ विपुलगिरि पर गये थे, यावत् वे पादपोपगमन संथार करके कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं । ये उनके धर्मोपकरण हैं । गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके पूछा'भगवन् ! स्कन्दक अनगार काल के अवसर पर कालधर्म को प्राप्त करके कहाँ गए और कहाँ उत्पन्न हुए ?' श्रमण भगवान् महावीर ने फरमाया-'हे गौतम ! मेरा शिष्य स्कन्दक अनगार, प्रकृतिभद्र यावत् विनीत मेरी आज्ञा प्राप्त करके, स्वयमेव पंचमहाव्रतों का आरोपण करके, यावत् संल्लेखना-संथारा करके समाधि को प्राप्त होकर काल के अवसर पर काल करके अच्युतकल्प