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भगवती-२/-/१/११३
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कही । तत्पश्चात् वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पख्रिाजक श्रमण भगवान् महावीर के श्रीमुख से धर्मकथा सुनकर एवं हृदय में अवधारण करके अत्यन्त हर्षित हुआ, सन्तुष्ट हुआ, यावत् उसका हृदय हर्ष से विकसित हो गया । तदनन्तर खड़े होकर और श्रमण भगवान् महावीर को दाहिनी ओर से तीन वार प्रदक्षिणा करके स्कन्दक पख्रिाजक ने इस प्रकार कहा-"भगवन् ! निर्ग्रन्थप्रवचन पर मैं श्रद्धा करता हूँ, निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं प्रतीति करता हूँ, भगवन् ! निर्ग्रन्थप्रवचन में मुझे रुचि है, भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन में अभ्युद्यत होता हूँ । हे भगवन् ! यह (निर्ग्रन्थ प्रवचन) इसी प्रकार है, यह तथ्य है, यह सत्य है, यह असंदिग्ध है, भगवन् !, यह मुझे इष्ट है, प्रतीष्ट है, इष्ट-प्रतीष्ट है । हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं, वैसा ही है ।"
यों कह कर स्कन्दक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । ऐसा करके उसने ईशानकोण में जाकर त्रिदण्ड, कुण्डिका, यावत् गेरुए वस्त्र आदि पब्रिाजक के उपकरण एकान्त में छोड़ दिये । फिर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आकर भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा'भगवन् ! वृद्धावस्था और मृत्यु रूपी अग्नि से यह लोक आदीप्त-प्रदीप्त है, वह एकदम जल रहा है और विशेष जल रहा है । जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो और वह घर जल रहा हो, तब वह उस जलते घर में से बहुमूल्य और अल्प भार वाले सामान को पहले बाहर निकालता है, और उसे लेकर वह एकान्त में जाता है । वह यह सोचता है बाहर निकाला हुआ यह सामान भविष्य में आगे-पीछे मेरे लिए हितरूप, सुखरूप, क्षेमकुशलरूप, कल्याणरूप, एवं साथ चलने वाला होगा । इसी तरह हे देवानुप्रिय भगवन् ! मेरा आत्मा भी एक भाण्ड रूप है । यह मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, सुन्दर, मनोज्ञ, मनोरम, स्थिरता वाला, विश्वासपात्र, सम्मत, अनुमत, बहुमत और रत्नों के पिटारे के समान है । इसलिए इसे ठंड न लगे, गर्मी न लगे, यह भूख-प्यास से पीड़ित न हो, इसे चोर, सिंह और सर्प हानि न पहुँचाएँ, इसे डांस और मच्छर न सताएँ, तथा वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि विविध रोग
और आतंक परीषह और उपसर्ग इसे स्पर्श न करें, इस प्रकार मैं इनसे इसकी बराबर रक्षा करता हूँ । मेरा आत्मा मुझे परलोक में हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप, कल्याणरूप और अनुगामीरूप होगा । इसलिए भगवन् ! मैं आपके पास स्वयं प्रव्रजित होना, स्वयं मुण्डित होना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि आप स्वयं मुझे प्रव्रजित करें, मुण्डित करें, आप स्वयं मुझे प्रतिलेखनादि क्रियाएँ सिखाएँ, सूत्र और अर्थ पढ़ाएँ । मैं चाहता हूँ कि आप मुझे ज्ञानादि आचार, गोचर, विनय, विनय का फल, चारित्र और पिण्ड-विशुद्धि आदि करण तथा संयम यात्रा और संयमयात्रा के निर्वाहक आहारादि की मात्रा के ग्रहणरूप धर्म को कहें ।'
तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने स्वयंमेव कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पख्रिाजक को प्रव्रजित किया, यावत् स्वयमेव धर्म की शिक्षा दी कि हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार (यतना) से चलना चाहिए, इस तरह से खन रहना चाहिए, इस तरह से बैठना चाहिए, इस तरह से सोना चाहिए, इस तरह से खाना चाहिए, इस तरह से बोलना चाहिए, इस प्रकार से उठकर सावधानतापूर्वक प्राण, भूत, जीव और सत्त्व के प्रत संयमपूर्वक बर्ताव करना चाहिए । इस विषय में जरा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । तब कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक मुनि ने पूर्वोक्त धार्मिक उपदेश को भलीभांति स्वीकार किया और जिस प्रकार की भगवान् महावीर की आज्ञा