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भगवती-२/-/१/११२
संसार बढ़ाता है और किस मरण से मरता हुआ संसार घटाता है ? इतने प्रश्नों का उत्तर दो । इस प्रकार उस कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक तापस से वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ द्वारा पूर्वोक्त प्रश्न आक्षेपपूर्वक पूछे, तब स्कन्दक तापस शंकाग्रस्त हुआ, कांक्षा उत्पन्न हुई; उसके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई; उसकी बुद्धि में भेद उत्पन्न हुआ उसके मन में कालुष्य उत्पन्न हुआ, इस कारण वह तापस, वैशालिक श्रावक पिंगलनिर्ग्रन्थ के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सका । अतः चुपचाप रह गया । इसके पश्चात् उस वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पब्रिाजक से दो बार, तीन बार भी उन्हीं प्रश्नों का साक्षेप पूछा कि मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ? यावत्-किस मरण से मरने से जीव बढ़ता या घटता है ?; इतने प्रश्नों का उत्तर दो । जब वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने कात्यायन-गोत्रीय स्कन्दक पब्रिाजक से दो-तीन बार पुनः उन्हीं प्रश्नों को पूछा तो वह पुनः पूर्ववत् शंकित, कांक्षित, विचिकित्साग्रस्त, भेदसमापन्न तथा कालुष्य (शोक) को प्राप्त हुआ, किन्तु वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सका । अतः चुप होकर रह गया ।
उस समय श्रावस्ती नगरी में जहाँ तीन मार्ग, चार मार्ग, और बहुत-से मार्ग मिलते हैं, वहाँ तथा महापथों में जनता की भारी भीड़ व्यूहाकार रूप में चल रही थी, लोग इस प्रकार बातें कर रहे थे कि 'श्रमण भगवान् महावीरस्वामी कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलाशक नामक उद्यान में पधारे हैं ।' परषिद्-भगवान् महावीर को वन्दना करने के लिए निकली । उस समय बहुत-से लोगों के मुँह से यह बात सुनकर और उसे अवधारण करके उस कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक तापस के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, अभिलाषा एवं संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलाशक नामक उद्यान में तपसंयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं । अतः मैं उनके पास जाऊँ, उन्हें वन्दना नमस्कार करूँ । मेरे लिये यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार करके, उनका सत्कार-सम्मान करके, उन कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप और
चैत्यरूप भगवान् महावीर स्वामी की पर्युपासना करूँ, तथा उनसे इन और इस प्रकार के अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों आदि को पूछू ।
यों विचार कर वह स्कन्दक तापस, जहाँ पब्रिाजकों का मठ था, वहाँ आया । वहाँ आकर त्रिदण्ड, कुण्डी, रुद्राक्ष की माला, करोटिका, आसन, केसरिका, त्रिगड़ी, अंकुशक, पवित्री, गणेत्रिका, छत्र, पगरखी, पादुका, धातु से रंगे हुए वस्त्र, इन सब तापस के उपकरणों को लेकर पख्रिाजकों के मठ से निकला । वहाँ से निकल कर त्रिदण्ड, कुण्डी, कांचनिका, करोटिका, भृशिका, केसरिका, त्रिगडी, अंकुशक, अंगूठी, और गणेत्रिका, इन्हें हाथ में लेकर, छत्र और पगरखी से युक्त होकर, तथा धातुरक्त वस्त्र पहनकर श्रावस्ती नगरी के मध्य में से निकलकर जहाँ कृतंगला नगरी थी, जहाँ छत्रपलाशक चैत्य था, और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, उसी ओर जाने के लिए प्रस्थान किया ।
___ 'हे गौतम !', इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने ज्येष्ठ शिष्य श्री इन्द्रभूति अनगार को सम्बोधित करके कहा-“गौतम ! (आज) तू अपने पूर्व के साथी को देखेगा ।" 'भगवन् ! मैं (आज) किसको देखूगा ?' गौतम ! तू स्कन्दक (नामक तापस) को देखेगा । “भगवन् ! मैं उसे कब, किस तरह से, और कितने समय बाद देखूगा ?" 'गौतम!