________________
भगवती-१/-/९/९८
५३
न होने से, और ये पद अवधारण किये हुए न होने से इस अर्थ में श्रद्धा नहीं की थी, प्रतीति नहीं की थी, रुचि नहीं की थी; किन्तु भगवन् ! अब इन (पदों) को जान लेने से, सुन लेने से, बोध होने से, अभिगम होने से, दृष्ट होने से, चिन्तित होने से, श्रुत होने से, विशेष जान लेने से, (आपके द्वारा) कथित होने से, निर्णीत होने से, उद्धृत होने से ओर इन पदों का अवधारण करने से इस अर्थ पर मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ रुचि करता हूँ, हे भगवन् ! आप जो यह कहते हैं, वह यथार्थ है, वह इसी प्रकार है । तब उन स्थविर भगवन्तों ने कालास्यवेषिपुत्र अनगार से कहा-'हे आर्य ! हम जैसा कहते हैं उस पर वैसी ही श्रद्धा करो, आर्य ! उस पर प्रतीति करो, आर्य ! उसमें रुचि रखो ।' .
तत्पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों को वन्दना की, नमस्कार किया, और तब वह इस प्रकार बोले-'हे भगवन् ! पहले मैंने (भगवान् पार्श्वनाथ का) चातुर्यामधर्म स्वीकार किया है, अब मैं आपके पास प्रतिक्रमणसहित पंचमहाव्रतरूप धर्म स्वीकार करके विचरण करना चाहता हूँ । (स्थविर-) 'हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो । परन्तु (इस शुभकार्य में) विलम्ब न करो । तदनन्तर कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने स्थविर भगवन्तों को वन्दना की, नमस्कार किया, और फिर चातुर्याम धर्म के स्थान पर प्रतिक्रमणसहित पंचमहाव्रत वाला धर्म स्वीकार किया और विचरण करने लगे ।
इसके पश्चात कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने बहत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन किया और जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, अदन्तधावन, छत्रवर्जन, पैरों में
जूते न पहनना, भूमिशयन, फलक पर शय्या, काष्ठ पर शयन, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षार्थ गृहस्थों के घरों में प्रवेश, लाभ और अलाभ, अनुकूल और प्रतिकूल, इन्द्रियसमूह के लिए कण्टकसम चुभने वाले कठोर शब्दादि इत्यादि २२ परीषहों को सहन करना, इन सब का स्वीकार किया, उस अभीष्ट प्रयोजन की सम्यक्प से आराधना की । और वह अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वास द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए और समस्त दुःखों से रहित हुए ।
[९९] 'भगवन् !' ऐसा कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया । तत्पश्चात् वे इस प्रकार बोले-भगवन् ! क्या श्रेष्ठी और दरिद्र को, रंक को और क्षत्रिय को अप्रत्याख्यान क्रिया समान होती है ? हाँ, गौतम ! श्रेष्ठी यावत् क्षत्रिय राजा के द्वारा अप्रत्याख्यान क्रिया समान की जाती है; भगवन् ! आप ऐसा किस हेतु से कहते हैं ? गौतम ! (इन चारों की) अविरति को लेकर, ऐसा कहा जाता है ।
[१००] भगवन् ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ क्या बाँधता है ? क्या करता है ? किसका चय (वृद्धि) करता है, और किसका उपचय करता है ? गौतम ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर शिथिलबन्धन से बंधी हुई सात कर्मप्रकृतियों को दृढ़बन्धन से बँदी हुई बना लेता है, यावत्-संसार में बार-बार पर्यटन करता है । भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम ! आधाकर्मी आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता है । अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता हुआ (साधक) पृथ्वीकाय के जीवों की अपेक्षा नहीं करता, और यावत्-त्रसकाय के जीवों की चिन्ता नहीं करता और जिन जीवों के शरीरों का वह भोग करता है, उन जीवों की भी चिन्ता नहीं करता । इस कारण हे गौतम !